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प्रकाशकीय
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आचाराङ्ग सूत्र का जैन आगमिक साहित्य में सर्वोच्च स्थान है भगवान महावीर की वाणी उनके गणधरों ने द्वादशांग के रूप में गुंफित की थी। प्रचलित भाषा में गणधरों द्वारा सङ्कलित संपादित भगवान महावीर के उपदेश बारह अंग शास्त्रों के रूप में हमें उपलब्ध हुए । इन बारह अंग शास्त्रों में प्रथम नाम आता है आचाराङ्ग सूत्र का । यही नहीं भाषा-शास्त्रियों की शोध से यह प्रकट होता है कि आज उपलब्ध जैन साहित्य में सबसे प्राचीन ग्रन्थ आचाराङ्ग सूत्र का प्रथम श्रुतस्कन्ध है ।
रचना की दृष्टि से जैन परम्परा की एक मान्यता है कि तीर्थंकर तीर्थं प्रवर्तन करते समय सर्वप्रथम पूर्वगत की रचना करते हैं और तब द्वादशांगी की। दूसरी मान्यता यह है कि तीर्थंकर सर्वप्रथम आचाराङ्ग का उद्बोधन करते हैं और फिर शेष अन्य सूत्रों का । जो भी हो यह निर्विवाद है कि तीर्थंकर की वाणी का जो अंश आज उपलब्ध है उसमें सर्वप्रथम आचाराङ्ग ही हैं ।
जैन आगमों के चूर्णिकार तथा वृत्तिकार तो यहाँ तक कहते हैं कि अतीत में जितने भी तीर्थंकर हुए हैं उन सभी ने सर्वप्रथम आचाराङ्ग का ही उपदेश दिया था । वर्तमान में महाविदेह क्षेत्र में जो तीर्थंकर विद्यमान हैं वे भी सर्वप्रथम आचाराङ्ग का ही उपदेश देते है तथा भविष्य काल में जितने तीर्थंकर होंगे वे सभी सर्वप्रथम आचाराङ्ग का ही उपदेश देंगे ।
जैन धर्म में मुक्ति मार्ग की दिशा में आचार का महत्व सर्वोपरि है । आचार के अभाव में दर्शन और ज्ञान दोनों औपचारिक हो जाते हैं । यहीं कारण है कि उपयोग की दृष्टि से भी आचाराङ्ग का सर्वप्रथम स्थान है क्योंकि आचाराङ्ग का प्रतिपाद्य विषय आचार है । आचाराङ्ग में सर्वप्रथम जीव को परिभाषित किया है और मुक्ति मार्ग के आधार के रूप में अहिंसा को प्रतिपादित किया है । दुःख के प्रति संवेदनशील बनने से ही हिंसा के त्याग का मार्ग प्रशस्त होता है । जो अन्य जीवों के दुःख का निमित्त बनता
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