________________ आचारांग-वृत्ति का भाषात्मक अध्ययन आचारांग का सम्पूर्ण विवेचन सूत्रात्मक शैली में है; जिसमें अर्थ प्रतिपादक महावीर के वचनों को पञ्चम गणधर सुधर्मा स्वामी ने सूत्रबद्ध किया। अर्थरूप में जो कुछ भी प्रतिपादन किया गया उसी को गणधरों ने तत्कालीन भाषा में सूत्रबद्ध किया। आचारांग के सभी सूत्र आर्ष प्राकृत में हैं। भाषा वैज्ञानिकों ने आर्ष प्राकृत के तीन भेद किये हैं-(१) अर्धमागधी (2) शौरसेनी और (3) पाली। .: अर्धमागधी और शौरसेनी को महावीर वचन के रूप में जाना जाता है और पाली को बुद्ध वचन के रूप में प्रतिपादित किया गया है।' आर्ष प्राकृत से जैन और बौद्ध के आगमों की भाषा का ज्ञान होता है। अर्धमागधी भाषा में आचारांग आदि आगम साहित्य का निर्माण हुआ है। अर्धमागधी आर्ष प्राकृत है। वैयाकरणों ने इस पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। आचार्य हेमचन्द ने आर्ष सूत्र के द्वारा इसके महत्त्व को स्पष्ट किया है। अर्धमागधी को ऋषि भासिता भी कहा गया है। समवायांग सूत्र में अर्धमागधी की विशेषताओं का विवेचन किया गया है। आचारांग सूत्र की भाषा मूलतः जितने भी आगम ग्रन्थ हैं वे सभी प्राकृत में हैं। अङ्ग सूत्र, उपांग सूत्र, छेद सूत्र, मूल सूत्र आदि सभी आगमों की भाषा अर्धमागधी भाषा है। इसकी ऐतिहासिक दृष्टि पर प्रकाश डालें तो यह निष्कर्ष निकलता है कि भाषा के स्वरूप में सदैव परिवर्तन होता रहा है। आचारांग की भाषा जितनी प्राचीन है उतनी अन्य आगमों की नहीं है। आचारांग के सूत्रों से ही यही विदित होता है। भाषा-विचार की दृष्टि से भी आचारांग की भाषा प्राचीन है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध की भाषा की अपेक्षा द्वितीय श्रुतस्कन्ध की भाषा कुछ शिथिल एवं सरल है। इसी तरह के क्रम में अन्य आगमों की भाषा को भी भाषागत विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है। आगमों की भाषा में परिवर्तन का मुख्य कारण यह भी रहा है कि ये आगम पूर्व में नहीं लिखे गये थे। महावीर के पश्चात् सुदीर्घकाल तक कंठस्थ करने की 208 आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org