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गहणेषणा, ग्रासैषणा) के दोषों से युक्त माना है।८ श्रमण एषणीय आहार को ही ग्रहण करता है। अनेषणीय का उन्हें निषेध किया गया है। अनेषणीय अर्थात् दोष से युक्त आहार के बयालीस भेद गिनाये गये हैं। इसी प्रसंग में अर्ध-पक्व आहार, अति रिच्छछिन्नाओं, तरुणियंवा छिवाडिं, अभज्जियाँ, पिहुयं, भज्जियं, मंथु, बेर आदि का विवेचन है।
अशन पान आदि के अतिरिक्त भोज्य पदार्थों में फल, पत्र का भी वर्णन है। आचारांग सूत्र के नवें श्रुतस्कन्ध में सचित सुक्ख (सूखा) क्षीत पिण्ड (शीतल पदार्थ) पुराण, कुर मास (पुराने उड़द), बक्कस, पुलाक, ओदन, मंथु, कूरमास, बोर, कोद्रव, आदि का वर्णन मिलता है आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में पिण्ड, लोय, क्षीर, दही, मक्खन, घृत, गुल्ल, तेल, मधु, मद्य, मांस, सक्कुलि, पाणिय, शिखरिणी; बारह प्रकार के पेय पदार्थों को दर्शाया गया है।९२ आम रस, कैरी, कपिथ, बिजौरा, मुडिडया, दाख, खजूर, नारियल, केला, बेर, आँवला, इमली और लवंग आदि का भी उल्लेख है ।९३ द्वितीय श्रुतस्कन्ध में भक्ष और अभक्ष पदार्थों का भी वर्णन मिलता है। इस तरह से पानक अशन खाद्य और खाद्य, आहार का वर्णन प्राप्त होता है । आहार को पिण्ड शब्द के रूप में सर्वत्र ग्रहण किया गया है। पिण्डेषणा को ग्यारह उद्देशकों में विविध प्रकार के आहार एवं उनकी विधि-विधान को भी स्पष्ट किया है। आचारांग वृत्तिकार ने “भाए” का अर्थ भात् किया है। इसी तरह से अन्न आहारों के उल्लेख में उनकी विस्तृत विवेचना की है। वृत्तिकार ने गेहूँ, बाजरा, मक्का, जौ को अन्न के रूप में ग्रहण किया है। दोदल वालों को दालों में ग्रहण किया है । “मंथू" शब्द से गेहूँ आदि के चूर्ण को ग्रहण किया है ।२४ पान
पान अर्थात् पीने योग्य पदार्थों में दूध, दही, घी एवं विविध प्रकार के रस लिये जाते हैं। आचारांग सूत्र में प्रायः चारित्र शुद्धि से युक्त श्रमणों के पेय पदार्थों की चर्चा के साथ यह कथन किया गया है कि जिन पेय-पदार्थों से जीव के लिये वाधा न पहुँचे ऐसे पदार्थ हो लेने योग्य हैं, महावीर चर्या में यह कथन किया गया है कि साधु सम्पूर्ण विशुद्धता से युक्त पदार्थों को ग्रहण करे। आहार एषणा के समय में मन, वचन, काया के योगों को संयत करके, साधक आसक्ति रहित होकर पेय पदार्थों को ग्रहण करे।५ आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में जो पिण्ड एषणा नामक अध्ययन है, उसमें गौरस का उल्लेख किया है।२६ इसी अध्ययन के सूत्र नं. ३४० से ३४२ तक में संखड़ी का उल्लेख किया है। संखड़ी में सभी तरह के परिजन उपस्थित होते हैं। वे जहाँ पर रस से युक्त मद्यपान आदि करते हैं इसे सोंड शब्द के रूप में दिया गया है। इसका अर्थ मद्य होता है।९७ वृत्तिकार ने पाणक जाय अर्थात् पाणक जात (पीने योग्य दाक्षा पान) का उल्लेख किया गया है। इसी प्रसंग १९०
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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