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इन बारह कुलों का उल्लेख इसमें है। इसी प्रकार के अन्य कुलों का भी संकेत किया है। जैसे-चर्मकार, दासी आदि कुल । २ इन कुलों को भी दो भागों में विभक्त किया गया है-१. ग्राह्य कुल-अनिन्दित या अगर्हित, २. अग्राह्यकुल-निन्दित या गर्हित। कुटुम्ब एवं परिवार
समाज का गठन परिवार और उनके सदस्यों के गठन से ही होता है। समाज संगठन को सामाजिक संस्था भी कहा जाता है, जिसमें पिता, पुत्र, पुत्री, माता, बहिन, भाई, बन्धु आदि के सदस्य रहते हैं। उनकी जातियाँ परिवार, कुटुम्ब एवं कुटुम्बिक क्रियाएँ जहाँ होती हैं उससे समाज का महत्त्व बढ़ जाता है। समय-समय पर सामाजिक संस्थाएँ विविध प्रकार के कार्यों को करते हैं जिससे समाज के कई रूप हमारे सामने आते हैं, जिनकी संक्षिप्त जानकारी आचारांग सूत्र में भी मिलती है। कुटुम्ब परिवार
परिवार का वृहद् रूप कुटुम्ब है, जिसमें परिवार के सदस्य में एक प्रमुख उत्तरदायी व्यक्ति भी होता है उसमें बालक-बालिका, माता-पिता, भाई-बहिन आदि का समावेश होता है। परिवार में जितने भी सदस्य होते हैं, उनका अपनी-अपनी दृष्टियों से महत्त्व होता है।
आगम साहित्य और उनकी टीकाओं में पारिवारिक सदस्यों का किसी न किसी तरह से उल्लेख हुआ है। आचारांग वृत्ति में माता, पिता, स्वजन, आत्मीयजन, वान्धव, सुहद् आदि का उल्लेख किया गया है। वे एक दूसरे के सहायक होते हैं। प्राप्त इष्ट मनोरथों के आधार पर भरण-पोषण करते हैं। विपत्तियों की रक्षा के लिये वे सदैव प्रयत्नशील रहते हैं।
आचारांग सूत्र के द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक में माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, पुत्र, धुआ, धूता (पुत्री), पुत्रवधू, सखी, स्वजन आदि का उल्लेख है।४ आचारांग वृत्तिकार ने उक्त सभी की विशेषताओं का उल्लेख किया है। अन्यत्र भी आचारांग सूत्र में पुत्र, पुत्री, पुत्रवधू जाति-जन, धाय, राजा, दास-दासी, कर्मचारी, कर्मचारणि, पाहुन (मेहमान) आदि का भी उल्लेख है।६ आचारांग वृत्ति में इस तरह के कई नामों का उल्लेख किया है। सामाजिक नारियाँ
आचारांग सूत्र में पुत्री, भगिनी, दासी, धाई, कर्मचारणि, पुत्रवधू, आदि नारियों का उल्लेख है। आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के १५वें अध्ययन में देवानन्दा, ब्राह्मणी, त्रिशलारानी, लालन-पालन करने वाली पांच धाई-माता-(१) क्षीर धातृ, (२) मंजन धातृ, (३) मंडावन धातृ, (४) खेलावण धातृ और (५) अंक धातृ का भी १८८
आचाराङ्ग-शीलाडूवृत्ति : एक अध्ययन
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