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राजकुमार को यह विशिष्ट दिशा से आगमन का ज्ञान उत्पन्न हुआ सो जातिस्मरणज्ञान के द्वारा होने वाले आत्मज्ञान का उदाहरण है। पर व्याकरण
तीर्थंकर के कहने से किसी जीव को अपने विशिष्टं दिशा-विदिशा से होने वाले आगमन का ज्ञान होता है। पर शब्द का अर्थ उत्कृष्ट है। तीर्थंकरों के अतिरिक्त अन्य कौन उत्कृष्ट हो सकता है ? अतः पर से तीर्थंकर का ग्रहण करना चाहिए। तीर्थंकर देव के उपदेश से बहुत से जीवों को अपनी पूर्व स्थिति का ज्ञान हुआ और अन्य अतीन्द्रिय बातों का ज्ञान होता है। इसके लिए भी वृत्तिकार ने एक दृष्टान्त दिया है।५७
श्री गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा-हे भगवन् ! मेरे हाथों से दीक्षित किये गये शिष्यों को केवलज्ञान हो गया और मुझे अब तक नहीं हुआ, इसका क्या कारण है? भगवान ने कहा हे गौतम ! मुझ पर तुम्हारा अतीव राग है। अतः तुम्हें कैवल्य उत्पन्न नहीं होता है। गौतम स्वामी ने पुनः प्रश्न किया हे भगवन ! आप पर मुझे इतना राग क्यों है? तब भगवान ने उनके पहले के कई भवों का वृत्तान्त सुनाकर कहा-“चिर संसिट्टोसि मे गोयमा। चिर परिचिओसि मे गोयम”।' अर्थात् हे गौतम ! तू मेरा चिर-परिचित है। तेरा और मेरा बहुत पुराना सम्बन्ध है।
भगवान के इस कथन के द्वारा गौतम स्वामी को अपने कई भवों का ज्ञान हुआ। यह ज्ञान परव्याकरणज्ञान है। अन्य अतिशय ज्ञानियों के वचन- अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, या केवलज्ञानी के उपदेशों के द्वारा जो पूर्व भव का ज्ञान होता है, वह अतिशय ज्ञानियों के वचन रूप है। जैसे अन्य व्याकरण ज्ञान भी कहते हैं। इसके लिये भी. वृत्तिकार ने मल्लिनाथ का दृष्टान्त दिया है।
मल्लिनाथ भगवान ने विवाह के लिये आये हुए छः राजकुमारों को अपने अवधिज्ञान के द्वारा उनके पूर्व भवों को जान कर उन्हें प्रतिबोध देने के लिये कहा कि “हमने जन्मान्तर में एक साथ संयम मार्ग अङ्गीकार किया था। उसके फलस्वरूप देवलोक के जयन्त विमान में हमने जन्म लिया था, क्या वह सब भूल गये?” इस प्रकार मल्लिस्वामी के पूर्व भव का कथन करने से उन राजपुत्रों को अपने विशिष्ट दिशागमन का ज्ञान हो गया।
इस तरह जैन आगमों की प्रथम अङ्ग ग्रन्थ आचारांग में ज्ञान की विविध रूपों में व्याख्या प्रस्तुत की गई है। वृत्तिकार ने प्रत्येक अध्ययन में ज्ञान की व्याख्या करने के लिये नय पद्धति और निक्षेप पद्धति को आधार बनाया है। आगम साहित्य में ज्ञान की चर्चा विस्तार से की गई है। आचारांग सूत्रकार ने आत्मवादी, विवेचन १७६
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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