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के दो भेद किये गये हैं-१. स्थावर और २. त्रस। इन जीवों के भी प्राणों की दृष्टि से चार से लेकर दस प्राण तक जीवों का विवेचन किया गया है।५२ योनि की दृष्टि से जीव के भेद अनेक हैं। उनमें वृत्तिकार ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करते हुए संसारी जीवों के सांसारिक कारणों के आधार पर आठ भेद इस प्रकार दिये हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ, दर्शन, मोहनीय चारित्र-मोहनीय, राग-द्वेष, कषाय और पञ्च इन्द्रिय विषय। लोक की अपेक्षा एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चतुर् इन्द्रिय और पञ्च इन्द्रिय-ये पाँच भेद किये हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव, भाव और पर्याय-ये आठ भेद निक्षेप की अपेक्षा से किये गये हैं। स्वभाव की दृष्टि से औपशामिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक—ये पाँच जीव के स्वरूप हैं।५३ द्रव्य और भाव की अपेक्षा से जीव के दो भेद किये गये हैं। इस तरह आगमों एवं सिद्धान्त ग्रन्थों में जीव के सामान्य दृष्टि से, योनि की दृष्टि से एवं भव-भाव आदि की अपेक्षा से जीव का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। जीव की विविध दार्शनिक मान्यताएं
जीव चैतन्य स्वरूप है। ज्ञान और दर्शन इसका उपयोग है। यह अपने ज्ञान, दर्शन आदि गुणों से भिन्न भी है और अभिन्न भी। कर्मों के अनुसार वह अनेक जन्मों को धारण करता है। अच्छे-बुरे विचारों से युक्त होता है। उसके फल को भोगता है। इसलिए जीव भेदाभेद की अपेक्षा के लिये हुए हैं। भारतीय दर्शन के सभी विचारकों ने यद्यपि जीव को चैतन्य स्वरूप माना है, फिर भी विविध दार्शनिकों की विविध. मान्यताएँ हैं, जिन पर सामान्य विवेचन ही प्रस्तुत किया जा रहा है। . बौद्ध दर्शन जीव/आत्मा के विषय में मौन है। बौद्ध दर्शन ने आत्मा की सत्ता को स्वीकार नहीं किया है। अन्य सभी दर्शनों में जीव/आत्मा की सत्ता. को स्वतंत्र रूप से स्वीकार किया है। भौतिकवादी चार्वाक मत चेतन को ही जीव मानता है। उसके अनुसार इन तत्त्वों के समाप्त होने पर भी जीव तत्त्व समाप्त हो जाता है।
- वेदान्त दर्शन जीव/आत्मा को ब्रह्म या परम तत्त्व को स्वीकार करता है वह देह स्थित आत्मा को जीव मानता है। आत्मा सच्चित् आनन्दस्वरूप है। जिसके लिए ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है वह परम ब्रह्म स्वरूप आत्मा को प्राप्त हो जाता है।
___ न्याय दर्शन आत्मा को नित्य एवं व्यापक मानता है। वह चैतन्य को आगन्तुक गुण मानता है। न्याय दर्शन के अनुसार चैतन्य गुण का उद्भव मन एवं शरीर के संयोग होने से होता है। न्याय दर्शन की तरह वैशेषिक दर्शन जीव को इसी रूप से मानता है।
आचाराङ्ग-शीलाङ्कवृत्ति : एक अध्ययन
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