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आत्मीय-आशिष
जैन साहित्य यथार्थ अर्थ में जहाँ अगाध अपार महासागर के सदृश्य गहन व गम्भीर है, वहाँ अनन्त अन्तरिक्ष के समान असीम है। प्रस्तुत जैन साहित्य मूलत: प्राकृत भाषा में निबद्ध है, जैन वाङ्मय का प्रचुर प्राचीन विभाग साहित्य
जैन आगम शब्द-बिन्दु में अर्थ-सिन्धु को समग्रता से समाहित किये हुए. है। प्रस्तुत साहित्य में आचारांग सूत्र शिरसि शेखरायमाण स्थान पर सुशोभायमान है। यह वह आगम रत्न है जिस पर जैन धर्मप्रभावक, पांडित्य-पयोधि श्रीशीलांकाचार्य ने अनुपम भाषा-शैली में वृत्ति का प्रणयन किया है। मुझे अतिशय प्रसन्नता है कि मेरी प्रज्ञामूर्ति योग्य शिष्या साध्वी राजश्री जी ने इस वृत्ति का न केवल पारायण किया है, अपितु उस मौलिक एवं मार्मिक वृत्ति पर समीक्षात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन पुरस्सर शोध शैली में आलेखन भी प्रस्तुत किया है। साध्वीश्री का यह शोध प्रधान महानिबन्ध पीएच.डी. जैसी उपाधि के लिए स्वीकृत हआ और वह डाक्टर की विशिष्ट एवं वरिष्ठ उपाधि से विभूषित हुईं। यह उपाधि वस्तुतः उपाधि रूप नहीं अपितु समाधिस्वरूप है, क्योंकि रत्नत्रय में ज्ञान साधना को समाधि के रूप में स्वीकार किया गया है। साध्वीश्री ने यह शोध प्रधान लेखन कर प्रकारान्तर से ज्ञान समाधि का अनुभव किया है और उसका अध्ययन एवं अध्यवसाय सर्वथा सफल हुआ है। मेरी यही आत्मीय आशिष है कि वह आगम साहित्य पर अधिकृत रूप से विलेखन करती हुई जैन साहित्य की श्रीवृद्धि में अवदान प्रदान करे। शारदा पुत्री का यह मूल्यवान उपहार शारदा निधान में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाएगा, ऐसा मुझे आत्मिक विश्वास है। यही मेरी आत्मीय आशीष है।
साध्वी चारित्रप्रभा
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