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________________ आवश्यकनियुक्तिः यस्माच्च समो रागद्वेषरहित आत्मनि परे च, यस्माच्च मातरि सर्वमहिलासु च शुद्धभावेन समानः, सर्वा योषितो मातृसदृशः पश्यति, यस्माच्च प्रियाप्रियेषु समानः, यस्माच्च मानापमानादिषु समानस्तस्मात् स श्रमणस्ततश्च तं सामायिकं जानीहीति सम्बन्धः ॥२०॥ तथा जो जाणइ समवायं दव्याण गुणाण पज्जयाणं च । सब्भावं तं सिद्ध सामाइयमुत्तमं जाणे ।।२१।। य: जानाति समवायं द्रव्याणां गुणानां पर्यायाणां च । सद्भावं तं सिद्धं सामायिकमुत्तमं जानीहि ॥२१॥ पूर्वगाथाभ्यां सम्यक्त्वसंयमयोः समागमनं व्याख्यातं अनया पुनर्गाथया ज्ञानसमागमन माचष्टे । यो जानाति समवायं सादृश्यं वा द्रव्याणां, द्रव्यसमवायं क्षेत्रसमवायं कालसमवायं भावसमवायं च जानाति । तत्र द्रव्यसमवायो नाम धर्माधर्मलोकाकाशैकजीवप्रदेशाः समाः । क्षेत्रसमवायो नाम सीमन्तनरकमनुष्य आचारवृत्ति-जिससे वे अपने और पर में राग-द्वेष रहित समभाव हैं, जिससे वे माता और सर्व महिलाओं में शुद्ध भाव से समान हैं अर्थात् सभी स्त्रियों को माता के सदृश देखते हैं, जिस वस्तु से प्रिय और अप्रिय में समान भावी हैं, और जिस हेतु से वे मान-अपमान (आदि शब्द से जीवन-मरण, सुख-दु:ख, लाभ-अलाभ, महल, श्मशान तथा शत्रु-मित्र आदि) में जो समभावी हैं, इन्हीं हेतुओं से वे श्रमण कहलाते हैं और इसीलिए तुम उन्हें सामायिक जानो । अर्थात् समता भाव से युक्त मुनि को ही सामायिक जानना चाहिए ॥२०॥ गाथार्थ-जो द्रव्यों के, गुणों के और पर्यायों के समवाय को और सद्भाव को जानता है उसके उत्तम सामायिक सिद्ध हुई-ऐसा जानो ॥२१॥ ___ आचारवृत्ति-पूर्व में दो गाथाओं द्वारा सम्यक्त्व और संयम का समागमन अर्थात् जीव के साथ ऐक्य बतलाया है और अब पुन: इस गाथा के द्वारा जीव के साथ ज्ञान का समागमन अर्थात् ऐक्य बतलाते हैं । जो द्रव्यों के समवाय अर्थात् सादृश्य को अथवा स्वरूप को जानते हैं अर्थात् द्रव्य समवाय, क्षेत्र समवाय, काल समवाय और भाव समवाय को जानते हैं, वे मुनि उत्तम सामायिक कहलाते हैं । उसमें द्रव्य के समवाय-सादृश्य को कहते हैं । द्रव्यों की सदृश्यता का नाम द्रव्य समवाय है; जैसे धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव-इनके प्रदेश समान हैं, अर्थात् इन चारों में असंख्यात प्रदेश हैं और वे पूर्णतया समान हैं । ऐसे ही क्षेत्र से सदृशता क्षेत्र समवाय है । १. क सज्झावत्तं सि० । २. क जाण । ३-४. क समगमनं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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