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________________ - १६ आवश्यकनियुक्तिः सम्यक्त्वज्ञानसंयमतपोभिर्यत्तत् प्रशस्तं समागमनं प्रापणं तैः सहैक्यं च जीवस्य यत् समयस्तु समय एव भणितस्तमेव सामायिक जानीहि ॥१८॥ तथा यःजिदउवसग्गपरीसह उवजुत्तो भावणासु समिदीसु । जमणियमउज्जदमदी सामाइयपरिणदो जीवो ।।१९।।.. जितोपसर्गपरीषह उपयुक्तः भावनासु समितिषु ।। यमनियमोद्यमतिः सामायिकपरिणतो जीवः ॥१९।। जिता: सोढा उपसर्गाः परीषहाश्च येन स जितोपसर्गपरीषहः समितिषु भावनासु चोपयुक्तो यः यमनियममोद्यतमतिश्च यः, स सामायिकपरिणतो जीव इति ॥१९॥ तथाजं च समो अप्पाणं परे य मादूय सव्वमहिलासु । अप्पियपियमाणादिसु तो समणो तो य सामइयं ।।२०।। यस्माच्च सम आत्मनि परे च मातरि सर्वमहिलासु । अप्रियप्रियमानादिषु तस्मात् श्रमणस्ततश्च सामयिकं ॥२०॥ आचारवृत्ति-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के साथ जो जीव का ऐक्य है वह 'समय' कहा जाता है और उस समय को ही सामायिक जानना चाहिए ॥१८॥ गाथार्थ-जिन्होंने उपसर्ग और परीषह को जीत लिया है, जो भावना और समितियों में उपयुक्त है, यम और नियम में उद्यमशील है, वे जीव सामायिक से परिणत हैं ॥१९॥ आचारवृत्ति—जो उपसर्ग और परिषहों को जीतने वाले होने से जितेन्द्रिय हैं, जो (पाँच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं अथवा मैत्री आदि) भावनाओं में तथा समितियों में लगे हुए हैं, यम और नियम में तत्पर जीव हैं वे बुद्धि सामायिक से परिणत हैं-ऐसा समझो ॥१९॥ गाथार्थ-जिस कारण से अपने और पर में, माता और सर्व महिलाओं में, अप्रिय और प्रिय तथा मान-अपमान आदि में समानभाव होता है इसी कारण से वे श्रमण हैं और इसी से वे सामायिक हैं ॥२०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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