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निष्कर्षों पर पहुँचते हैं कि ये दोनों निश्चित ही श्रमण परम्परा की दो धाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं और इसीलिए दोनों में अनेक दृष्टियों से समानता है ।
अत: भाव, भाषा, विषय और प्रतिपादन शैली की दृष्टियों से दोनों में समानता के आधार पर कुछ विद्वानों का यह कथन आग्रह युक्त और भ्रामक है कि आवश्यक नियुक्तिकार ने मूलाचार से वे गाथायें अपने ग्रन्थ में ग्रहण कर अथवा मूलाचारकार ने आवश्यक नियुक्ति सहित अन्यान्य अर्धमागधी आगम ग्रन्थों से वे गाथायें ग्रहण की । क्योंकि हमें इस तथ्य को कभी नहीं भूलना चाहिए कि मूलतः तीर्थंकर महावीर की निम्रन्थ परम्परा एक ही थी ।
कालान्तर में जब दो भागों में विभक्त हुई, तब परम्परा-भेद के पहले का समागत श्रुत दोनों परम्पराओं के आचार्यों को कंठस्थ था । अत: दोनों धाराओं के आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में अभीष्ट विषय के विवेचन प्रसंग में उस मूल श्रुतज्ञान का प्रसंगानुसार उपयोग किया है । इससे किसी ग्रन्थ अथवा ग्रन्थकार के ग्रन्थ-लेखन की मौलिकता को खींचतान कर खण्डित करना अनुचित है, सभी मौलिक गुणों से युक्त और मौलिक हैं । : वस्तुत: अर्धमागधी आगमों में श्रमणाचार के जिन नियमों और उपनियमों को निबद्ध किया गया है तथा शौरसेनी प्राकृत भाषा के मूलाचार में श्रमण की जो आचार संहिता निबद्ध है उसकी तात्त्विक और आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता । अहिंसा और आध्यात्म के जिस मूल धरातल पर श्रमणाचार का महाप्रासाद अर्धमागधी आगम में निर्मित है, उसी अहिंसा के मूल धरातल पर शौरसेनी प्राकृत तथा इसके मूलाचार में प्रतिपादित श्रमणाचार का विशाल भवन निर्मित है । अत: अपनी अपनी दृष्टि में दोनों मैलिक ही सिद्ध होते हैं और इसीलिए समग्र और व्यापक अध्ययन हेतु इन सभी परम्पराओं के आगम-ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक है । तभी हम सभी की समृद्ध और वैभव पूर्ण परम्पराओं से परिचित हो सकते हैं और परस्पर सौहार्द भाव के लिए यह आवश्यक भी है ।
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