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भाषात्मक अध्ययन के आधार पर यह भी स्पष्ट है कि मूलाचार की भाषा का जो स्वरूप इस समय विद्यमान है, तथा अर्धमागधी साहित्य और यहाँ तक कि आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य की भाषा का जो रूप आज विद्यमान है, वह रूप मूलाचार की भाषा से भिन्न ही दिखलाई देता है।
जहाँ तक मूलाचार और अर्धमागधी आवश्यक नियुक्ति में अनेक समान गाथाओं का प्रश्न है उसके लिए भी मूल परम्परा से प्राप्त 'श्रुत' का अपने-अपने प्रसंग के अनुसार ग्रहण करने वाला उपर्युक्त तथ्य यहाँ भी लागू होता है।
इस प्रकार सामान्य अध्ययन के साथ ही भाषावैज्ञानिक दृष्टि से तुलनात्मक अध्ययन की अत्यन्त उपयोगिता है । तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अभी भी प्राकृत भाषा और साहित्य के विविध पक्षों का उद्घाटित होना शेष है । सम्पूर्ण आगम साहित्य का इस प्रकार का अध्ययन इसलिए भी अति आवश्यक है, ताकि ये तथ्य सामने आ सके कि प्राकृत भाषायें अपना स्वरूप सुरक्षित रखते हुए भी बाद में किस तरह से अपभ्रंश रूप में परिवर्तित हुई तथा वर्तमान की हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि प्रान्तीय तथा अन्यान्य भाषायें, प्राकृत भाषाओं से किस प्रकार उद्भूत और विकसित हुई ।
वस्तुत: भाषावैज्ञानिक दृष्टि से प्राकृत भाषा की गणना मध्य भारतीय आर्य भाषा में की जाती है । प्राकृत भाषा में देश-भेद एवं कालभेद से अनेक भेदोपभेद हैं, वे इस बात के सबल प्रमाण भी हैं कि प्राकृत भाषा में प्रजनन शक्ति सर्वाधिक है, उसने अपभ्रंश सहित अनेक भाषाओं को जन्म दिया । इससे उत्पन्न अपभ्रंशों ने अधुनातन लोकभाषाओं को विकसित किया है ।
___ अत: प्राकृत भाषा भाषावैज्ञानिक तत्त्वों की दृष्टि से खूब समृद्ध है । इसमें उस भाषा-विज्ञान के सभी सिद्धान्त पूर्णतया घटित होते हैं । इसमें ध्वनि परिवर्तन की सभी स्थितियाँ वर्तमान है, क्योंकि इस भाषा के वैयाकरणों ने ध्वनिविकारों का विवेचन बड़ी स्पष्टता के साथ किया है । बोलियों की भिन्नता एवं रूप विकारों की बहुलता का दर्शन भी प्राकृत भाषा में वर्तमान है ।' निष्कर्ष
आवश्यक नियुक्ति तथा अर्धमागधी साहित्य के अन्यान्य आगमों और मूलाचार तथा तद्गत आवश्यक नियुक्ति के तुलनात्मक अध्ययन से हम इन
१. प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास : पृष्ठ ११६ ।
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