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मूलसंघ के श्रमणों-मुनियों का जिस प्रकार का आचार-विचार व्यवहार और चर्या होना चाहिए, वैसा ही प्रतिपादन मूलाचार में किया गया है । वस्तुतः प्रथम मूल अंग - आगम आचारांग में श्रमणाचार का ही प्रतिपादन तीर्थंकर महावीर के वचनों के माध्यम से किया गया था ।
मूलाचार के व्याख्याकार आचार्य वसुनन्दि ने अपनी आचारवृत्ति के आरम्भिक उपोद्घात में कहा है- .... आचाराङ्गमाचार्यपारम्पर्य प्रवर्तमानमल्पबलमेधायु:शिष्यनिमित्तं द्वादशाधिकारैरुपसंहर्तुकामः स्वस्य श्रोतॄणां च प्रारब्धकार्यप्रत्यूहनिराकारणक्षमं शुभपरिणामं विदधच्छ्रीवट्टकेराचार्यः...... मंगल पूर्विकां प्रतिज्ञां विधत्ते......।
अर्थात् आचार्य परम्परा से चला आ रहा प्रथम अंग आगम- आचारांग का अल्पशक्ति, अल्पवुद्धिं और अल्पआयु वाले शिष्यों के लिए इस मूलाचार का बारह अधिकारों में उपसंहार करने की इच्छा करते हुए अपने और श्रोताओं के प्रारम्भ किये गये कार्यों के विघ्नों को दूर करने में समर्थ शुभ परिणाम को धारण करते हुए श्री वट्टकेराचार्य मंगलपूर्वक प्रतिज्ञा करते हैं ।
इस प्रसंग में डॉ. ज्योति प्रसाद जैन का यह कथन ( भा० ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार का प्रधान सम्पादकीय वक्तव्य ) सही प्रतीत होता है किआचार्य कुन्दकुन्द के ज्येष्ठ लोहाचार्य ( ईसा पूर्व १४ वर्ष ) श्रुतधराचार्य की परम्परा के अन्तिम आचारांगधारी थे । सम्भव है कि उन्हीं से आचारांग का ज्ञान प्राप्त करके उनके शिष्य वट्टकेर ने मूलसंघ की आम्नाय के मुनियों के हितार्थ बारह अधिकारों में उपसंहार करके मूलाचार का रूप दिया हो ।
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इस प्रकार आचारांग का सार है यह मूलाचार । इसीलिए आरम्भ से वर्तमान काल तक के दिगम्बर परम्परा में दीक्षित साधुओं के लिए तो यही मूलाचार आचारांग की तरह आदर्श रूप है । क्योंकि दिगम्बर जैन मुनियों के सांगोपांग आचार का प्रतिपादक यही एकमात्र प्रथम प्राचीन और प्रामाणिक आगम-ग्रन्थ है । परवर्ती - प्रायः सभी श्रमणाचार विषयक ग्रन्थों का भी मूलाधार यही ग्रन्थ है । मूलाचार न केवल श्रमणाचार विषयक ग्रन्थ है, अपितु ज्ञानध्यान- तप और संयम-साधना में दत्तचित्त रहने वाले मुनियों को करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग विषयक ज्ञान में भी यही मूलाचार पारंगत बना देता
है ।
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