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आवश्यकनिर्युक्तिः
२. कृतिकर्म के योग्य मुद्रायें – अनगारधर्मामृत (८/८५-८६ में) कृतिकर्म प्रयोग में चार प्रकार की मुद्रायें वर्णित हैं - १. जिनमुद्रा, २. योगमुद्रा, ३. वन्दनामुद्रा और ४. मुक्ताशुक्ति- मुद्रा ।
१. दोनों पैरों में चार अंगुल का अन्तर रखकर दोनों भुजाओं को लटकाकर कायोत्सर्ग से खड़ा होना जिनमुद्रा है । २. बैठकर पद्मासन, अर्ध-पर्यंका या पर्यंकासन से बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखना योगमुद्रा है । ३. खड़े होकर मुकुलित कमल के समान अंजुली जोड़ना वन्दना - मुद्रा है । ४. इसी स्थिति में दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर जोड़ना मुक्ताशुक्तिमुद्रा है ।
सामायिक दण्डक और थोस्सामि इनके पाठ में 'मुक्ताशुक्ति' मुद्रा का प्रयोग होता है । 'जयति' इत्यादि भक्ति बोलते हुए वन्दना करते समय 'वन्दना 'मुद्रा' होती है। खड़े होकर कायोत्सर्ग करने में 'जिनमुद्रा' एवं बैठकर कायोत्सर्ग करने में 'योगमुद्रा' होती है ।
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देव या गुरु क्रो नमस्कार करते समय मुनि और आर्यिका पंचांग प्रणाम ( नमन) गवासन से बैठकर करते हैं ।
३. कृतिकर्म की प्रयोग - विधि - 'अथ देव - वन्दनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तव समेतं चैत्यभक्ति-कायोत्सर्गं करोम्यहं ।
(इस प्रतिज्ञा को करके खड़े होकर पंचांग नमस्कार करे । पुनः खड़े होकर तीन आवर्त, एक शिरोनति करके मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर सामायिक दण्डक पढ़े ।)
७. सामायिक दण्डक स्तव
णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लाए सव्वसाहूणं ।।
चत्तारिमंगलं – अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा— अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि – अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि ।
अड्डाइज्जदीवदोसमुद्देसु पण्णारसकम्मभूमिसु, जाव अरहंताणं भयवंताणं आदियराणं तित्थयराणं जिणाणं जिणोत्तमाणं केवलियाणं, सिद्धाणं बुद्धाणं परिणिव्वुदाणं अंतयडाणं पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसियाणं, धम्मणाय
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