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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
४. पंचकल्याणक सम्बन्धी भक्तियाँ
जिनवर के पाँच कल्याणकों में क्रमश: गर्भ एवं जन्म कल्याणक में सिद्ध, चारित्र, शान्ति भक्ति हैं । तप कल्याणक में सिद्ध, चारित्र, योग, शान्ति भक्ति तथा ज्ञानकल्याणक में सिद्ध, चारित्र, योग, श्रुत और शान्ति-भक्ति है । निर्वाणकल्याणक में शान्ति भक्ति के पूर्व निर्वाणभक्ति और पढ़ना चाहिए । यदि प्रतिमायोगधारी योगी दीक्षा में छोटे भी हों तो भी उनकी वन्दना करनी चाहिए । उसमें सिद्ध, योग और शान्ति भक्ति करना चाहिए ।
केशलोंचके प्रारम्भ में लघुसिद्धभक्ति और योगिभक्ति करें । अनन्तर केशलोंच समाप्ति पर लघुसिद्धभक्ति करनी होती है। ५. समाधिमरण सम्बन्धी भक्तियाँ
सामान्य मुनि का समाधिमरण होने पर उनके शरीर की क्रिया और निषद्या क्रिया में सिद्ध, योगि, शान्ति-भक्ति करना चाहिए ।
आचार्य-समाधि पर सिद्ध, योगि, आचार्य और शान्तिभक्ति करनी चाहिए ।
(विशेष—इनका और भी विशेष विवरण आचारसार, मूलाचार-प्रदीप, अनगार-धर्मामृत आदि श्रमणाचार विषयक अन्यान्य शास्त्रों से ज्ञात करना चाहिए । क्योंकि यहाँ अतिसंक्षेप में प्रस्तुत किया गया हैं ।) ६. कृतिकर्म सम्बन्धी विशेष विधि
१. कृतिकर्म विधि-पूर्वोक्त भक्तियों को यथास्थान करते समय कृतिकर्म विधि की जाती है । इसमें “अड्डाइज्जदीव दोसमुद्देसु" आदि पाठ सामायिक दण्डक कहलाता है । 'थोस्सामि' पाठ चतुर्विंशति तीर्थंकरस्तव हैं । मध्य में कायोत्सर्ग होता ही है, तथा 'जयति भगवान् हेमांभोज' इत्यादि चैत्यभक्ति आदि के पाठ वन्दना कहलाते हैं । अत: देववन्दना व गुरुवन्दना में सामायिक, स्तव, वन्दना और कायोत्सर्ग-ये चार आवश्यक सम्मिलित हो जाते हैं तथा कायोत्सर्ग अन्य-अन्य स्थानों में पृथक् से भी किये जाते हैं । प्रतिक्रमण में भी कृतिकर्म में सामायिक दण्डक, कायोत्सर्ग और चतुर्विंशतिस्तव हैं । वीरभक्ति आदि के पाठ वन्दना रूप हैं । अत: इसमें भी ये सब गर्भित हो जाते हैं ।
आहार के अनन्तर प्रत्याख्यान-ग्रहण किया ही जाता है तथा अन्य भी वस्तुओं के त्याग करने में व उपवास आदि करने में प्रत्याख्यान आवश्यक हो जाता है । इस तरह ये छहों आवश्यक प्रतिदिन किए जाते हैं ।
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