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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
इस काल-प्रमाण के विभाजन में यह जानना आवश्यक है कि प्राणवायु (श्वास) नासिका (नाक) से शरीर के अन्दर जाने और बाहर निकलने की प्रक्रिया का नाम उच्छ्वास (श्वासोच्छ्वास) है ।
इसीलिए णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं-इन दो पदों के उच्चारण में एक उच्छ्वास-काल प्रमाण पूर्ण होता है तथा पूरे णमोकार मन्त्र के उच्चारण में तीन उच्छ्वास-काल प्रमाण लगता है । कायोत्सर्ग के लाभ .. कायोत्सर्ग का मुख्य उद्देश्य शरीर और आत्मा के भेद-विज्ञान का साक्षात्कार करके आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करना है । अर्धमागधी आवश्यक नियुक्ति में कायोत्सर्ग के पाँच फल बतलाये हैं ।२
१. देहजाड्यशुद्धि-दैहिक जड़ता की शुद्धि अर्थात् श्लेष्म आदि के द्वारा देह में जड़ता आती है । कायोत्सर्ग से श्लेष्म आदि दोष नष्ट हो जाते हैं । अत: उनसे उत्पन्न होने वाली जड़ता भी नष्ट हो जाती है।
२. मतिजाड्यशद्धि-अर्थात् बौद्धिक जड़ता की शद्धि । कायोत्सर्ग में मन की प्रवृत्ति केन्द्रित हो जाने से बौद्धिक जड़ता नष्ट हो जाती है ।
३. सुख-दुःख तितिक्षा-सुख-दुःख सहन करने की क्षमता (शक्ति) प्राप्त होती है।
४. अनुप्रेक्षा–अर्थात् शुद्ध भावना का अभ्यास । इसके माध्यम से अनुप्रेक्षाओं (बारह भावनाओं) के अनुचिन्तन में स्थिरतापूर्वक अभ्यास की निरन्तर वृद्धि होती है। - ५. ध्यान-कायोत्सर्ग से शुभ ध्यान का अभ्यास सहज हो जाता है ।
मूलाचार में कहा है कि सभी दुःखों के क्षय के लिए धीर पुरुष कायोत्सर्ग करते हैं । कायोत्सर्ग करने से जैसे-जैसे शरीर के अंगोपांग (अवयव) की संधियाँ भिंदती जाती हैं वैसे-वैसे कर्मरज नष्ट होती जाती है ।
१. कुन्द० मूलाचार ९/१८५ पृष्ठ ३३८ । २. . देह मइ जडसुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खया अणुप्पेहा । झायइ य सुहं झाणं एयग्गो काउसग्गम्मि ॥ . .
-अर्धमागधी आवश्यक नियुक्ति ५/१४६२ ३. कायोसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए-मूलाचार ७/१७४ । ४. काओसग्गम्हि कदे जह भिज्जदि अंगुवंगसंधीओ।
तह भिज्जदि कम्मरयं काउस्सग्गस्स करणेण ॥ वही ७/१६९
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