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आवश्यकनियुक्तिः
समय हुए दोषों या अतिचारों की विशुद्धि के लिए किया जाने वाला चेष्टा कायोत्सर्ग है तथा प्राप्त कष्टों को सहन करने', कष्टजनित भय को निरस्त करने एवं विशेष आत्म-विशुद्धि के लिए दीर्घकाल तक मन की एकाग्रता का अभ्यास करने के लिए किया जाने वाला अभिभव कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग के अंग
कायोत्सर्ग के तीन अंग हैं-१. कायोत्सर्ग, २. कायोत्सर्गी, ३. कायोत्सर्ग के कारण ।
१. कायोत्सर्ग-दोनों हाथ नीचे करके दोनों पैरों में चार अंगुल के अन्तर से समपाद, शरीर के सभी अंगों की चंचलता से रहित निश्चल खड़े होकर कायोत्सर्ग करना विशुद्ध कायोत्सर्ग है ।'
२. कायोत्सर्गी जो जीव मोक्षार्थी, निद्राजयी, सूत्रार्थ विशारद, करण (परिणामों से) शुद्ध, आत्मबल और वीर्ययुक्त है-ऐसे विशुद्धात्मा को कायोत्सर्गी कहा जाता है । क्योंकि यह कायोत्सर्ग मोक्षपथ अर्थात् मोक्षमार्ग रूप रत्नत्रय का उपदेशक और ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय तथा अन्तरायइन चार घातिया-कर्मों के अतिचारों का विनाश करने वाला है । इस कायोत्सर्ग का जिनेन्द्रदेव ने सेवन किया तथा दूसरों को उपदेश दिया । ऐसे ही कायोत्सर्ग को धारण करने की वह इच्छा करता है ।।
३. कायोत्सर्ग के कारण-एक पैर से खड़े होने पर जो अतिचार होता है तथा द्वेषवश गुप्तियों के उल्लंघन एवं क्रोध, मान, माया तथा लोभ-इन चार कषायों के द्वारा व्रतों में जो व्यतिक्रम होता है, इन सबके तथा षड्जीवनिकाय की विराधना के द्वारा, भय एवं मद-स्थानों के द्वारा जो व्यतिक्रम हुए, साथ ही ब्रह्मचर्य-धर्म में हुए व्यतिक्रमों से उत्पन्न अशुभ कर्मों के विनाशार्थ कायोत्सर्ग किया जाता है ।
मूलाचारकार ने कायोत्सर्ग के और भी कारणों का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च-इन चेतन प्राणियों द्वारा किये जाने वाले तथा विद्युत्पात् आदि अचेतन कारणों से उत्पन्न सभी प्रकार के उपसर्गों के अभ्यास
१. मूलाचार ७/१५८ । २. काउस्सग्गो काउस्सग्गो काउस्सग्गस्स कारणं चेव ।
एदेसिं पत्तेयं परूवणा होदि तिण्हति ॥ मूलाचार ७/१५२ ३. ' वही ७/१५३ ।
४. वही ७/१५४ । . ५. वही ७/१५५ ।
६. वही ७/१५६, १५७ ।
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