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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
१. उत्थित-उत्थित-जिस कायोत्सर्ग में खड़े होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यान का चिन्तन किया जाता है वह उत्थित-उत्थित कायोत्सर्ग है। इसमें श्रमण शरीर (द्रव्य) तथा परिणामों (भावों)-इन दोनों में उत्थित होता है ।
यहाँ द्रव्य और भाव-इन दोनों के ही उत्थान से युक्त होने के कारण उत्थित-उत्थित शब्द से उत्थान का प्रकर्ष कहा है । स्थाणु (खम्भे) की तरह शरीर को उन्नत और निश्चल रखना द्रव्योत्थान है । ज्ञानरूप भाव का ध्यान करने योग्य एक ही वस्तु में स्थिर रहना भावोत्थान है ।
२. उत्थित-निविष्ट–इसमें शरीर से स्थित (खड़े) होकर भी आर्त-रौद्रध्यान का चिन्तन ही रहता है ।२ अर्थात् श्रमण शरीर रूप द्रव्य से स्थित रहने पर भी मन में विविध अशुभ विकल्प रूप परिणामों में उलझा रहता है । अत: शरीर से खड़े होकर भी शुभ परिणामों के अभाव के कारण (मन-आत्मा से) निविष्ट–बैठे हुए रहते हैं । अत: एक ही काल और क्षेत्र में उत्थित और निविष्ट-इन दोनों आसनों में परस्पर विरोध नहीं है, क्योंकि दोनों के निमित्त भिन्न हैं।
३. उपविष्ट-उत्थित-उपविष्ट अर्थात् बैठकर भी धर्मध्यान और शुक्लध्यान का ही चिन्तन करना उपविष्ट-उत्थित कायोत्सर्ग है । शरीर के वृद्ध एवं : अशक्त हो जाने पर श्रमण खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करने में असमर्थ होता है, किन्त मन में शुभध्यान-चिन्तन के तीव्र भाव रहते हैं । अत: मन में उन्नत परिणामों से युक्त होने के कारण वह उत्थित होता है, किन्तु अशक्ति के कारण उपविष्ट अर्थात् तन से बैठा रहता है।
४. उपविष्ट-निविष्ट–जो बैठकर भी आर्तध्यान और रौद्रध्यान का ही चिन्तन करता है, उसके उपविष्ट-निविष्ट कायोत्सर्ग होता है । ये तन और मन दोनों से उपविष्ट (बैठे हुए)हैं—अर्थात् आलस्य और कर्तव्य-शून्य होते हैं । क्योंकि न तो ये शरीर से उत्थित होते हैं और न ही इनके शुभ परिणाम रहते
__अर्धमागधी आवश्यक नियुक्ति में उद्देश्य की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो भेद बताये हैं-चेष्टा कायोत्सर्ग और अभिभव कायोत्सर्ग । विभिन्न प्रवृत्तियाँ करते
३.
मूलाचार ७/१७७ ।
२. वही ७/१७८ । मूलाचार ७/१७९ ।
४. वही ७/१८० । ५. सो उस्सग्गो दुविहो चिट्ठाए अभिभवे य नायव्यो।
भिक्खायरियाइ पढमो उवसग्गभिमुंजणे विइओ ।। आवश्यक नियुक्ति १४५२
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