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जैन श्रमण के षड्-आवश्यक : एक तुलनात्मक अध्ययन
विभिन्न तीर्थंकरों के समय प्रतिक्रमण की परम्परा-चौबीस तीर्थंकरों के संघ में प्रतिक्रमण के विधान की परम्परा का मूलाचारकार ने उल्लेख करते हुए लिखा है कि प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को अतिचार (दोष) लगे या न लगे किन्तु दोषों की विशुद्धि के लिए समयानुसार प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया, किन्तु मध्य के बाईस तीर्थंकरों अर्थात् द्वितीय तीर्थंकर अजितनाथ से लेकर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अपराध होने पर ही प्रतिक्रमण करने का उपदेश दिया और कहा कि जिस व्रत में स्वयं या अन्य साधु को अतिचार हो उस दोष के नाशार्थ उसे प्रतिक्रमण करना चाहिए ।
वस्तुत: मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकरों के शिष्य दृढ़ बुद्धिशाली, एकाग्रमनवाले, प्रेक्षापूर्वकारी, अतिचारों की गर्दा एवं जुगुप्सा करने वाले तथा, शुद्धचरित्र होते थे । किन्तु प्रथम और अन्तिम तीर्थंकरों के शिष्य चंचल चित्तवाले, मोही तथा जड़ बुद्धि वाले होते थे । अत: ईर्यापथ, आहारगमन, स्वप्नादि में किसी भी समय अतिचार होने या न होने पर भी उन्हें सभी नियमों एवं प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों के उच्चारण का उपदेश दिया ।
मूलाचारकार ने इसके सम्बन्ध में अन्धलक-घोटक (अन्थे घोडे) का दृष्टान्त इस प्रकार दिया है ।
दृष्टान्त-किसी राजा का घोड़ा अन्धा हो गया। राजा ने उसे उपचार हेतु वैद्य के यहाँ भेजा किन्तु वैद्य दूसरे गाँव गया था । वैद्य के पुत्र से उसकी दवा के लिए कहा, किन्तु उसे दवा आदि का विशेष कुछ भी ज्ञान न था फिर भी अति आवश्यकतावश उसने घोड़े की आँखों पर क्रमश: सभी दवाओं का प्रयोग किया और किसी दवा के प्रयोग से अचानक ही घोड़े की आँखें अच्छी हो गई । ठीक इसी 'अन्यलक-घोटक न्याय रूप दृष्टान्त की तरह एक अतिचार के होने या न होने पर भी प्रतिक्रमण के सभी दण्डकों के उच्चारण का विधान किया गया, ताकि किसी एक पर मन स्थिर हो जाने से दोषों का प्रमार्जन हो जाय ।
अर्थात् वैद्यपुत्र की तरह मुनि का मन जब एक प्रतिक्रमण दण्डक में स्थिर नहीं होता हो तो यह सोचकर सभी प्रतिक्रमण दण्डकों का उच्चारण करना
१. २.
मूलाचार ७/१२९-१३३ । पुरिमचरिमादु जला चलचित्ता चेव मोहलक्खा य । तो सव्वपडिक्कमणं अंधलयघोडय दिलुतो ।। मूलाचार ७/१३३
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