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आवश्यकनियुक्तिः
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विनय को पंचम गति (मोक्ष) का नायक' और मोक्ष का द्वार कहा है । इसी से संयम, तप तथा ज्ञान प्राप्त होता है और आचार्य तथा सम्पूर्ण संघ आराधित होता है । यह श्रृताभ्यास (शिक्षा) का फल है। इसके बिना सारी शिक्षा निरर्थक है । यह सभी कल्याणों का फल भी है । धर्मरूपी वृक्ष का मूल विनय है उसका अन्तिम परिणाम (रस) मोक्ष है । इस विनयरूपी मूल द्वारा विनयवान् व्यक्ति इस लोक में कीर्ति और ज्ञान प्राप्त करता है और क्रमश: अपना आत्मविकास करता हुआ अन्त में निःश्रेयस को प्राप्त करता है ।
वृत्तिकार वसुनन्दि ने विनयकर्म की परिभाषा करते हुए कहा है कि जिसके द्वारा कर्म दूर किये जाते हैं, कर्मों का संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि भावरूप परिणमन करा दिया जाता है उस क्रिया को विनयकर्म या शुश्रूषा कहते हैं ।
विनयकर्म के भेद-इसके पाँच भेद हैं-१. लोकानुवृत्ति, २. अर्थनिमितक, ३. कामतन्त्र, ४. भय और ५. मोक्ष । इनमें अर्थविनय, कामविनय और भयविनय-ये तीन मूलरूप में संसार की प्रयोजक है ।
१. लोकानुवृत्ति विनय-अर्थात् लोकाचार में विनय करना । मूलरूप में लोकानुवृत्ति विनय की विधि के अनुसार इसके दो भेद हैं—प्रथम के अन्तर्गत यथावसर सबका यथोचित आदर-सत्कार किया जाता है और दूसरी वह विनय हैं जो अपने विभव के अनुसार देवपूजा आदि के समय की जाती है । इस प्रकार पूज्य पुरुषों के आगमन पर आसन से उठना, हाथ जोड़ना, आसन देना, अतिथि पूजा, देवपूजा, अनुकूल भाषण तथा देश-काल योग्य स्वद्रव्य दान करना -ये सब लोकानुवृत्ति विनय है ।' _ इन्हीं आधारों पर इसके निम्नलिखित सात भेद किये गये हैंअभ्युत्थान, आसनदान, अतिथिपूजा, अपने विभव के अनुसार देव-पूजन, भाषानुवृत्ति, छन्दानुवर्तन और देश-काल योग्य स्वद्रव्य दान ।
१. विणयो पंचमगइणायगो भणियो—मूलाचार ५/१६७ । २. वही ५/१/१८९, भगवती आराधना १२९ । ३. विणएण विप्पहीणस्स हवदि सिक्खा णिरत्थिया सव्वा ।
विणओ सिक्खाए फलं विणय-फलं सव्वकल्लाणं । वही ५/१८८ ४. दशवैकालिक ९/२/२ ।
मूलाचारवृत्ति ७/७९ । ६., मूलाचार ७/८३ । ७. मूलाचार ७/८४-८५ ।
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