SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक नियुक्तिः लयनं उत्कीर्णपर्वतप्रदेशः, शयनं पल्यंकतूलिकादिकं, आसनं वेत्रासनादिकं, भक्तो भक्तियुक्तो जन आत्मभक्तिर्वा, प्राणः सामर्थ्यं दशप्रकाराः प्राणा वा, कामो मैथुनेच्छा, अर्थो द्रव्यादिप्रयोजनं; इत्येवंकारणेन कायोत्सर्गं यः करोति परिवारनिमित्तं विभूतिनिमित्तं सत्कारपूजानिमित्तं चाशनपाननिमित्तं वा लयनशयनासननिमित्तं कायोत्सर्गं — यः करोति मम भक्तो जनो भवत्विति मदीया भक्तिर्वा ख्यातिं गच्छत्विति यः कायोत्सर्गं करोति, मदीयं प्राणसामर्थ्यं लोको जानातु मम प्राणरक्षको देवो वा मनुष्यो वा भवत्विति हेतो यः कायोत्सर्गं करोति, कामहेतुरर्थहेतुश्च यः कायोत्सर्गः स सर्वोऽप्यप्रशस्तो मनः संकल्प इति ॥१८०॥ आणाणिद्देसपमाणकित्तिवण्णणपहावणगुणट्टं । झाणमिणमप्पसत्यं मणसंकंप्पो दुऽवीसत्थो ।। १८१ । । आज्ञानिर्देशप्रमाणकीर्तिवर्णनप्रभावनगुणार्थं । ध्यानमिदमप्रशस्तं मनःसंकल्पस्तुऽविश्वस्तः ॥ १८१ ॥ १४३ आज्ञा आदेशमन्तरेण नीत्वा वर्त्तनं । निर्देशः आदेशो वचनस्यानन्यथा करणं । प्रमाणं सर्वत्र प्रमाणीकरणं । कीर्त्तिः ख्यातिस्तस्या वर्णनं प्रशंसनं । उकेरे हुए पर्वत आदि के प्रदेश को लयन कहते हैं, पलंग, गद्दे आदि शयन है, वेत्रासन - मोढ़ा, सिंहासन, कुर्सी आदि आसन हैं । भक्ति से सहित लोग भक्त हैं अथवा आत्मभक्ति । सामर्थ्य को प्राण कहते हैं, प्राण दश प्रकार के होते हैं, मैथुन की इच्छा काम है, द्रव्य आदि का प्रयोजन अर्थ कहलाता है । जो मुनि इन कारणों के निमित्त कायोत्सर्ग करते हैं- परिवार एवं विभूति के निमित्त, सत्कार- पूजा के निमित्त, भोजन-पान हेतु, लयन, शयन, आसन के लिए, भक्तजनों द्वारा मेरी भक्ति होवें, मेरी ख्याति फैले, मेरे प्राण - सामर्थ्य को लोग जानें, देव या मनुष्य मेरे प्राणों के रक्षक होवें, इन हेतुओं से जो कायोत्सर्ग करते हैं तथा कामहेतु और अर्थहेतु जो कायोत्सर्ग है वह सब कायोत्सर्ग अप्रशस्त मन का परिणाम है - ऐसा समझना चाहिए ॥ १८० ॥ गाथार्थ — आज्ञा, निर्देश, प्रमाणता, कीर्ति, प्रशंसा, प्रभावना, गुण और प्रयोजन – यह सब ध्यान अप्रशस्त हैं, ऐसा मनः संकल्प ( मन का परिणाम ) अविश्वस्त (अप्रशस्त) है ॥१८१॥ Jain Education International आचारवृत्ति — आदेश के बिना आज्ञा लेकर वर्तन करें वह आज्ञा है । वचन को अन्यथा न करे अर्थात् कहे हुए वचन के अनुसार ही लोग प्रवृत्ति करें सो आदेश है । सभी स्थानों में प्रमाणभूत स्वीकार करें सो प्रमाणीकरण है । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy