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________________ १२६ आवश्यकनियुक्तिः कायोत्सर्गे त्रीणि शतानि उच्छ्वासानां चिन्तनीयानि स्थातव्यानि विधेयानि । नियमान्ते वीरभक्तिकायोत्सर्गकाले अप्रमत्तेन प्रमादरहितेन यत्नवता विशेष सिद्धभक्तिप्रतिक्रमणभक्तिचतुर्विंशतितीर्थंकरभक्तिकरणकायोत्सर्गे सप्तविंशतिरुच्छ्वासाः कर्तव्या इति ॥१५६॥ चातुर्मासिकसांवत्सरिककायोत्सर्गप्रमाणमाहचादुम्मासे चउरो सदाई संवत्थरे' य पञ्चसदा । काओसग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्या ।।१५७।। . चातुर्मासिके चत्वारि शतानि संवत्सरे च पंचशतानि । कायोत्सर्गोच्छ्वासाः पंचसु स्थानेषु ज्ञातव्याः ॥१५७।। भक्ति के कायोत्सर्ग के समय प्रयत्नशील मुनि को ये प्रमाद रहित होकर करना चाहिए, तथा विशेष में अर्थात् सिद्ध भक्ति, प्रतिक्रमण भक्ति और चतुर्विंशति तीर्थंकर भक्ति के कायोत्सर्ग में सत्ताईस (२७) उच्छ्वास करना चाहिए अर्थात् नौ बार णमोकार मंत्र जपना चाहिए । ____ भावार्थ-दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण में चार भक्तियों की जाती हैं१. सिद्ध, २. प्रतिक्रमण, ३. वीर और ४. चतुर्विंशति तीर्थंकर । इनमें से तीन भक्तियों के कायोत्सर्ग में तो २७-२७ उच्छ्वास करने होते हैं, और वीर भक्ति में उपर्युक्त प्रमाण से उच्छ्वास होते हैं । पाक्षिक प्रतिक्रमण में ग्यारह भक्तियों होती हैं । यथा-सिद्ध, चारित्र, सिद्ध, योगि, आचार्य, प्रतिक्रमण, वीर, चतुर्विंशति तीर्थंकर, बृहदालोचनाचार्य, मध्यमालोचनाचार्य और क्षुल्लकालोचनाचार्य । इनमें से नव भक्ति में सत्ताईस उच्छ्वास ही होते हैं तथा वीर भक्ति में तीन सौ उच्छ्वास होते हैं । एक बार णमोकार मंत्र के जप में तीन उच्छ्वास होते हैं। कायोत्सर्ग की विधि—'णमो अरिहंताणं' श्वास लेते हुए, श्वास छोड़ते हुए 'णमो सिद्धाणं' । अत: दो पदों के उच्चारण में एक श्वासोच्छवास, इसी तरह ‘णमो आइरियाणं' एवं 'णमो उवज्झायाणं' इन दो पदों में एक श्वासोच्छ्वास और अन्त में पद, ‘णमो लोए', श्वास लेते हुए, 'सव्वसाहूणं' श्वास छोड़ते हुए, एक श्वासोच्छ्वास में इस तरह तीन श्वासोच्छ्वास में एक बार जप होता है ॥१५६।। चातुर्मासिक और सांवत्सरिक कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं गाथार्थ-चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में चार सौ और सांवत्सरिक में पाँच सौ इस तरह इन पाँच स्थानों में कायोत्सर्ग के उच्छ्वास जानना चाहिए ॥१५७॥ १. ३. क विशेषेषु । २. क संवच्छराय । मूलाचार (भा० ज्ञानपीठ संस्करण) भाग १, पृष्ठ ४८० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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