________________
आवश्यकनियुक्तिः
१२५
संवत्सरमुत्कृष्टं भिन्नमुहूर्त जघन्यं भवति ।
शेषाः कायोत्सर्गा भवंति अनेकेषु स्थानेषु ॥१५५।। संवत्सरं द्वादशमासमात्रं उत्कृष्टं प्रमाणं कायोत्सर्गस्य । जघन्येन प्रमाणं कायोत्सर्गस्यान्तर्मुहूर्तमात्रं । संवत्सरान्तर्मुहूर्तमध्येऽनेकविकल्पा दिवसरात्र्यहोत्रादिभेदभिन्नाः शेषाः कायोत्सर्गा अनेकेषु स्थानेषु बहुस्थानविशेषेषु शक्त्यपक्षेया कार्याः, कालद्रव्यक्षेत्रभावकायोत्सर्गविकल्पा भवन्तीति ॥१५५।।
दैवसिकादिप्रतिक्रमणे कायोत्सर्गस्य प्रमाणमाहअट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णिसया । उस्सासा कायव्वा णियमंते अप्पमत्तेण ।।१५६।।
अष्टाशतं दैवसिकं कल्ये) पाक्षिकं च त्रीणि शतानि ।
उच्छ्वासाः कर्तव्या नियमांते अप्रमत्तेन ॥१५६।। अष्टभिरधिकं शतमष्टोत्तरशतं दैवसिके प्रतिक्रमणे दैवसिकप्रतिक्रमणविषये कायोत्सर्गे उच्छ्वासानामष्टोत्तरशतं कर्त्तव्यं । कल्लद्धं रात्रिकप्रतिक्रमणविषयकायोत्सर्गे चतुःपञ्चाशदुच्छ्वासाः कर्तव्याः । पाक्षिके च प्रतिक्रमणविषये
आचारवृत्ति-बारह माह या संवत्सर अर्थात् एक वर्ष कायोत्सर्ग का उत्कृष्ट प्रमाण है, अन्तर्मुहूर्त मात्र जघन्य प्रमाण है । इन दोनों अर्थात् संवत्सर एवं अन्तर्मुहूर्त के बीच (मध्य) में दिवस, रात्रि, अहोरात्र आदि भेद रूप से ये सभी मध्यमकाल वाले कहलाते हैं । काल, द्रव्य, क्षेत्र और भाव की अपेक्षा से कायोत्सर्ग के अनेक भेद हो जाते हैं । अत: अपनी शक्ति की अपेक्षा से बहुत से स्थान विशेषों में ये कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥१५५॥
दैवसिक आदि प्रतिक्रमण में कायोत्सर्ग का प्रमाण कहते हैं- गाथार्थ-अप्रमत्त साधु को वीर भक्ति में दैवसिक के एक सौ आठ, रात्रिक के इससे आधे-चौवन और पाक्षिक के तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए ॥१५६॥ .. आचारवृत्ति-दैवसिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में एक सौ आठ उच्छवास करना चाहिए अर्थात् छत्तीस बार (३६) णमोकार मंत्र का जप करना चाहिए । रात्रिक प्रतिक्रमण विषयक कायोत्सर्ग में चौवन (५४) उच्छ्वास अर्थात् अट्ठारह बार णमोकार मंत्र करना चाहिए । पाक्षिक प्रतिक्रमण के कायोत्सर्ग में तीन सौ उच्छ्वास करना चाहिए । ये उच्छ्वासों का प्रमाण नियमांत-अर्थात् वीर
१.
क ०अष्टशतं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org