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आवश्यकनियुक्तिः
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स्पर्श: संस्पर्शनं कटिगुह्यादिकं च तस्य प्रमार्जनं प्रतिलेखनं शुद्धिं पउंजंतो प्रयुंजानः प्रकर्षेण कुर्वन् जाचेंतो वंदणयं वन्दनां च याचमानो 'भवद्भयो वन्दनां विदधामि' इति याञ्चां कुर्वनिच्छाकारं वन्दना प्रमाणं करोति भिक्षुः साधुरेवं द्वात्रिंशद्दोषपरिहारेण तावत् द्वात्रिंशद् गुणा भवंति । .
तस्माद्यत्नपरेण हास्यभयासादनारागद्वेषगौरवालस्यमदलोभस्तेनभावप्रातिकूल्यवालत्वोपरोधहीनाधिकभावशरीरपरामर्शवचनभृकुटिकरणषाटकरणादिवर्जनपरेण देवतादिगतमानसेन विवर्जितकार्यान्तरेण विशुद्धमनोवचनकाययोगेन मौनपरेण वन्दना, करणीया वन्दनाकारकेणेति ॥१०८॥
यस्य क्रियते वन्दना तेन कथं प्रत्येषितव्येत्याहतेण च पडिच्छिदव्वं गारवरहिएण सुद्धभावेण । किदियम्मकारकस्सवि संवेगं संजणंतेण ।।१०९।।
तेन च प्रत्येषितव्यं गर्वरहितेन शुद्धभावेन ।
कृतिकर्मकारकस्यापि संवेगं संजनयता ॥१०९।। तेण च तेनाचार्येण पडिच्छिदव्वं प्रत्येषितव्यमभ्युगन्तव्यं गौरवरहितेन ऋद्धिवीर्यादिगारवरहितेन कृतिकर्मकारकस्य वन्दनायाः कर्तुरपि संवेगधर्मेधर्मफले' च हर्ष संजनयता सम्यग्विधानेन कारयता शुद्धपरिणामवता वन्दनाऽभ्युपगन्तव्येति ॥१०९॥
हास्य, भय, आसादना, राग, द्वेष, गौरव, आलस्य, मद, लोभ, चौर्यभाव, प्रतिकूलता, बालभाव, उपरोध-दूसरों को रोकना, हीन या अधिक पाठ बोलना, शरीर का स्पर्श करना, वचन बोलना, भृकुटी चढ़ाना, खात्कारखांसना, खखारना इत्यादि दोषों को छोड़कर वन्दना करे । जिनकी वन्दना कर रहे हैं ऐसे देव या गुरु आदि में अपने मन को लगा-कर अर्थात् उनके गुणों में अपने उपयोग को लगाते हुए, अन्य कार्यों को छोड़कर वन्दना करने वाले को विशुद्ध मन-वचन-काय के द्वारा मौनपूर्वक वन्दना करना चाहिए ॥१०८॥ ... जिनकी वन्दना की जाती है, वे वन्दना को किस प्रकार से स्वीकार करें ? इस सम्बन्ध में कहते हैं
गाथार्थ-कृतिकर्म करने वाले को हर्ष उत्पन्न करते हुए वे गुरु गर्वरहित शुद्ध भाव से वन्दना स्वीकार करें ॥१०९।।
१:
ग. ऋद्धिरससात ।
___ ग. धर्मेऽधर्मफले।
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