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________________ ८० आवश्यकनियुक्तिः तस्य दोलायितदोष: अंकुसियं अंकुशितमंकुशमिव करांगुष्ठं ललाटदेशे कृत्वा यो वन्दनां करोति तस्यांकुशितदोषः, तथा कच्छपरिंगियं कच्छपरिंगितं चेष्टितं कटिभागेन कृत्वा यो विदधाति वन्दनां तस्य कच्छपरिंगितदोषः ॥१०२॥ तथामच्छुव्वत्तं मणोदुजें वेदिआवद्धमेव य । भयसा चेव भयत्तं इड्ढिगारव गारवं ।।१०३।। मत्स्योद्वतों मनोदुष्टो वेदिकाबद्ध मेव च । भयेन च विभ्यत्त्वं ऋद्धिगौरवं गौरवं ॥१०३॥ . मत्स्योद्वर्त्तः पार्श्वद्वयेन वन्दनाकारणमथवा मत्स्यस्य इव कटिभागेनोद्वर्त्त कृत्वा यो वन्दनां विदधाति तस्य मत्स्योद्वर्त्तदोषः, मनसाचार्यादीनां दुष्टो भूत्वा यो वन्दनां करोति तस्य मनोदुष्टदोषः । संक्लेशयुक्तेन मनसा यद्वा वन्दनाकरणं, वेदियावद्धमेव य वेदिकाबद्ध एव च वेदिकाकारेण हस्ताभ्यां बंधो हस्तपंजरेण वामदक्षिणस्तनप्रदेशं प्रपीड्य जानुद्वयं वा प्रबद्ध्य वंदनाकरणं वेदिकाबद्धदोषः, ६. अंकुशित-अंकुश के समान हाथ के अंगूठे को ललाट पर रखकर जो वन्दना करता है उसके अंकुशित दोष होता है । ७. कच्छपपरिंगित—कछुए के समान चेष्टा करके कटिभाग से सरककर . जो वन्दना करता है उसके कच्छपपरिंगित दोष होता है । - गाथार्थ-मत्स्योद्वर्त, मनोदुष्ट, वेदिकाबद्ध, भय, विभ्यत्त्व, ऋद्धिगौरव, गौरव ॥१०३॥ ८. मत्स्योद्वर्त-दो पसवाड़ों से वन्दना करना अथवा मत्स्य के समान कटिभाग को ऊपर उठाकर (या पलटकर) जो वन्दना करता है उसके मत्स्योद्वर्त दोष होता है। ९. मनोदुष्ट-मन से आचार्य आदि के प्रति द्वेष धारण करके जो वन्दना करता है अथवा संक्लेशयुक्त मन से जो वन्दना करता है उसके मनोदुष्ट नाम का दोष होता है। १०. वेदिकावद्ध-वेदिका के आकार रूप से दोनों हाथों को बाँधकर हाथ पंजर से वाम-दक्षिण स्तन प्रदेश को पीड़ित करके या दोनों घुटनों को बाँध करके वन्दना करना वेदिकावद्ध दोष है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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