________________
३८ ३८
४०
४०
४१
४७.
२
५२-५३
४३
X
४२. क्षेत्रलोक का स्वरूप ४३. चिह्न-लोक का स्वरूप ४४. कषाय-लोक का स्वरूप
भव-लोक का स्वरूप भाव-लोक का स्वरूप
पर्याय-लोक का स्वरूप ४८. द्रव्य-उद्योत का स्वरूप ४९. भाव-उद्योत का स्वरूप ५०. द्रव्य-भाव उद्योत का स्वरूप ५१. चौबीस तीर्थंकर द्रव्य-उद्योत नहीं,
भाव-उद्योत के कर्ता हैं. ५२. धर्म-तीर्थ के तीन भेद ५३. द्रव्य और भाव-भेद से तीर्थ
का स्वरूप ५४. द्रव्यतीर्थ का स्वरूप ५५. भावतीर्थ का स्वरूप ५६. जिन और अर्हन्त का स्वरूप ५७. अरहंत शब्द की निरुक्ति ५८. अरहंत कीर्तन के योग्य है ५९. केवली का स्वरूप ६०. तीर्थंकर उत्तम क्यों हैं ? ६१. जिनेन्द्रदेव से आरोग्य, बोधि
और समाधि की याचना निदान
नहीं है६२. . ऐसी याचना केवल भक्ति-भाव
४७
४७
४८
५२
.
६३. जिनवरों द्वारा प्रदत्त रत्नत्रय का
उपदेश ६४. जिनवरों की भक्ति का माहात्म्य
अरहंत, धर्म, श्रुत और आचार्य आदि
में राग भक्ति है, निदान नहीं ६६. चतुर्विंशतिस्तव का विधान ६७. चतुर्विंशतिस्तव नियुक्ति का उपसंहार और
३-वंदना नियुक्ति कथन की प्रतिज्ञा
५२-५३
६९-७१
७२
५४
७३
५४
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org