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आवश्यकनियुक्तिः
आचार्योपाध्यायानां प्रवर्तकस्थविरगणधरादीनां ।
एतेषां कृतिकर्म कर्तव्यं निर्जरार्थं ॥९०॥ तेषामाचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविरगणधरादीना कृतिकर्म कर्तव्यं निर्जरार्थं न मन्त्रतन्त्रोपकरणायेति ॥९०॥
एते पुनः क्रियाकर्मायोग्या इति प्रतिपादयन्नाहणो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णरिंद अण्णतित्थं व । देसविरद देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा ।।९।।
नो बन्देत अविरतं मातरं पितरं गुरुं नरेन्द्रं अन्यतीर्थवा ।
देशविरतं देवं वा विरतः पार्श्वस्थपञ्चकं वा ॥११॥ णो वंदिज्ज न वंदेत् न स्तुयात् कं अविरदमविरतमसंयतं मातरं जननी पितरं जनकं गुरु दीक्षागुरुं श्रुतगुरुमप्यसंयतं चरणादिशिथिलं नरेन्द्रं राजानं अन्यतीर्थिकं पाखंडिनं वा देशविरतं श्रावकं शास्त्रादि प्रौढमपि देवं वा नागयक्षचन्द्रसूर्येन्द्रादिकं वा विरत: संयतः सन् पार्श्वस्थपणकं वा ज्ञानदर्शनचारित्रशिथि
गाथार्थ-निर्जरा के लिए आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर का कृतिकर्म करना चाहिए ॥१०॥
आचारवृत्ति—इन आचार्य आदिकों का कृतिकर्म (विनयकर्म) कर्मों की निर्जरा के लिए करना चाहिए, मन्त्र-तन्त्र या उपकरण के लिए नहीं ॥९०॥
पुनः जो विनयकर्म के अयोग्य हैं उनका वर्णन करते हैं
गाथार्थ-अविरत माता पिता व गुरु की, राजा की, अन्य तीर्थ की, या देशविरत की, अथवा देवों की या पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि की वह विरत-मुनि वन्दना न करें ॥११॥ __आचारवृत्ति-असंयत माता-पिता की, असंयत गुरु की अर्थात् दीक्षा-गुरु यदि चारित्र में शिथिल-भृष्ट हैं या श्रुतगुरु यदि असंगत हैं अथवा चारित्र में शिथिल हैं तो संयत मुनि इनकी वन्दना न करें । वह राजा की, पाखण्डी साधुओं की, शास्त्रादि से प्रौढ़ भी देशव्रती श्रावक की या नाग, यक्ष, चन्द्र, सूर्य, इन्द्रादि देवों की भी वन्दना न करें । तथा पार्श्वस्थ आदि पाँच प्रकार के मुनि जो कि निग्रंथ होते हुए भी दर्शन, ज्ञान, चारित्र में शिथिल हैं, इनकी भी वन्दना न करें ।
विरत मुनि मोहादि से असंयत माता-पिता आदि की, या अन्य किसी की स्तुति न करें । भय से या लोभ आदि से राजा की स्तुति न करें । ग्रहों की पीड़ा आदि के भय से सूर्य आदि की पूजा न करें ।
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