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________________ आवश्यकनियुक्तिः ४७ द्रव्यतीर्थेन दाहस्य संतापस्योपशमनं भवति तृष्णाश्छेदो विनाशो भवति स्तोककालं पंकस्य च प्रवहणं शोधनमेव भवति । न धर्मादिको गुणस्तस्मात्रिभिः कारणैर्युक्तं द्रव्यतीर्थं भवतीति ॥५८॥ भावतीर्थस्वरूपमाहदंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सव्वेवि । तिहिं कारणेहिं जुत्ता तह्या ते भावदो तित्थं ।।५९।। दर्शनज्ञानचारित्रैः निर्युक्ता जिनवरास्तु सर्वेपि । त्रिभिः कारणैः युक्ताः तस्मात् ते भावतस्तीर्थम् ॥५९॥ दर्शनज्ञानचारित्रैर्युक्ताः संयुक्ता जिनवरा: सर्वेऽपि ते तीर्थं भवंति तस्मात्रिभिः कारणैरपि भावतस्तीर्थमिति भावोद्योतेन लोकोद्योतकरा भावतीर्यकर्तृत्वेन धर्मतीर्थकरा इतिः । अथवा दर्शनज्ञानचारित्राणि जिनवरैः सर्वैरपि निर्युक्तानि सेवितानि तस्मात्तानि भावतस्तीर्थमिति ॥५९॥ जिनवरा अर्हनिति पदं व्याख्यातुकाम: प्राहजिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होति । हंता अरिं च जम्मं अरहंता तेण 'वुच्चंति ।।६।। जितक्रोधमानमाया जितलोभाः तेन ते जिन भवंति । हंतारः अरीणां च जन्मनः अर्हन्तस्तेन उच्यन्ते ॥६०॥ . हतार आचारवृत्ति-द्रव्यतीर्थ से (गंगा, पुष्कर आदि से) संताप का उपशमन होता है, प्यास का विनाश होता है और कुछ काल तक ही मल का शोधन हो जाता है, किन्तु उससे धर्म आदि गुण नहीं होते हैं । इसलिए इन तीन कारणों से रहित होने से उसे द्रव्यतीर्थ कहते हैं ॥५८॥ भावतीर्थ का स्वरूप कहते हैं गाथार्थ-सभी जिनेश्वर दर्शन, ज्ञान और चारित्र से युक्त हैं । इन तीन कारणों से युक्त हैं इसलिए वे भाव से तीर्थ हैं ॥५९॥ आचारवृत्ति-दर्शन, ज्ञान, चारित्र से संयुक्त होने से सभी तीर्थंकर भावतीर्थ कहलाते हैं । इस प्रकार से ये तीर्थंकर भावउद्योत से लोक को प्रकाशित करने वाले हैं और भावतीर्थ के कर्ता होने से 'धर्मतीर्थकर' कहलाते हैं । अथवा सभी जिनवरों ने इस रत्नत्रय का सेवन किया है इसलिए वे भावतीर्थ कहलाते हैं ॥५९॥ १. क वुच्चदि य । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004237
Book TitleAavashyak Niryukti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchand Jain, Anekant Jain
PublisherJin Foundation
Publication Year2009
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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