________________
करती है; इसका मुख्य विषय भूगोल है और 'निरयावलिका' के पांचों अंग वैराग्यवासित कथा प्रधान हैं।
छेदसूत्रों में प्रायश्चित्त विधि का वर्णन है तो मूलसूत्रों में 'दशवैकालिक', 'आवश्यक', 'पिण्डनियुक्ति' और 'ओघनियुक्ति' आदि में मुख्यतः मुनि आचार का वर्णन है। चूलिकासूत्रों के अन्तर्गत 'नन्दीसूत्र' में पांचज्ञान का एवं 'अनुयोग-द्वार' में विभिन्न निक्षेपों एवं अनुयोगों का विवेचन है।
. प्रकीर्णकों में 'चतुःशरण' में चार शरण अर्हत, सिद्ध, साधु एवं धर्म तथा 'आतुरप्रत्याख्यान', 'महाप्रत्याख्यान', 'भक्तपरिज्ञा' 'संस्तारक' एवं 'मरणसमाधि' में समाधिमरण का वर्णन है, 'तंदुलवैचारिक' एवं 'चन्द्रवेध्यक' मुख्यतः साधनापरक हैं। 'गच्छाचार' में गच्छ/संघ के नियम/अनुशासन का; 'गणिविद्या' में मुख्यतः ज्योतिष का एवं देवेन्द्रस्तव में देवों की ऋद्धि का वर्णन किया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जहां प्रत्येक आगम मुख्यतः एक विषय प्रधान है, वहीं 'उत्तराध्ययनसूत्र' बहुविध विषयों का सरस, सुबोध एवं सारगर्भित संग्रह है। इसमें धर्म, आचार, तत्त्वज्ञान, उपदेश, इतिहास आदि अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। संक्षेप में कहें तो जैनदर्शन की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मान्यताओं को समझने के लिए यह एक ही शास्त्र पर्याप्त है। इसके सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन अग्रिम अध्याय में किया गया है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org