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आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थभाष्य में अंगबाह्य ग्रन्थों में सामायिक आदि छः आवश्यक ग्रन्थों का उल्लेख है और उसके बाद दशवैकालिक उत्तराध्ययनसूत्र, आचारदशा, कल्प, व्यवहार, निशीथ और ऋषिभाषित का उल्लेख है। 63
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उत्तराध्ययनसूत्र जैनधर्म दर्शन एवं साधना की सर्वांगीण व्याख्या प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि हिन्दु धर्म-ग्रन्थों में जो स्थान गीता का है, बौद्धधर्म ग्रन्थों में 'धम्मपद' का है; वही स्थान जैन आगमों में उत्तराध्ययनसूत्र का है। यह जैन सिद्धान्तों एवं जैनसाधनापद्धति का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। जैन दर्शन का कोई भी प्रमुख सिद्धान्त या विचार ऐसा नहीं है जो उत्तराध्ययनसूत्र में उल्लिखित न हों । इसमें सामाजिक शिष्टाचार, आध्यात्मिक-तत्त्वज्ञान और वैराग्य को सिंचित करने वाले सभी मूल तत्त्व उपस्थित हैं। यही कारण है कि इसे मूल आगम कहा जाता है।
जैनागम साहित्य में उत्तराध्ययनसूत्र के महत्त्व को जानने हेतु सर्वप्रथम उपसंहार के रूप में संपूर्ण आगम - वाङ्मय की संक्षिप्त परिक्रमा अपेक्षित है।
अंगसाहित्य में 'आचारांगसूत्र' आचारप्रधान है; 'सूत्रकृतांग दर्शन प्रधान है; स्थानांग' एवं 'समवायांग जैन शब्दकोश की तरह हैं, 'भगवतीसूत्र' जैन दर्शन एवं खगोल- भूगोल सम्बन्धी गंभीर सिद्धान्तों का वर्णन करता है। 'ज्ञाताधर्मकथांग' ‘उपासकदशांग', अन्तगड़दशांग' एवं 'अनुत्तरोपपातिकदशांग' में वैराग्यवर्धक कथाओं का संकलन है। 'प्रश्नव्याकरणसूत्र का उपलब्ध संस्करण बन्धन और मुक्ति के मूल हेतु आस्रव एवं संवर की चर्चा करता है, तो 'विपाकसूत्र' शुभाशुभ कर्मों के फल विपाक की कथाओं के माध्यम से चर्चा करता है । 'दृष्टिवाद' यद्यपि जैनदर्शन, कर्मसिद्धान्त एवं आचार सम्बन्धी मौलिक प्रश्नों की चर्चा करता था, किन्तु आज वह अनुपलब्ध है।
उपांग आगमों में ‘औपपातिकसूत्र में मुख्यतः स्वर्ग (देवलोक ) एवं नरक में जन्म ग्रहण करने वालों का वर्णन है; 'राजप्रश्नीय' में राजापसेनीय (प्रसेनजित) की कथा है; 'जीवाजीवविभक्ति' में जीव-अजीव का विश्लेषण है; 'प्रज्ञापना' जीव एवं अजीव के सम्बन्ध रूप मन, भाषा, कर्म आदि की चर्चा करता है । 'सूर्यप्रज्ञप्ति तथा 'चन्द्रप्रज्ञप्ति' ज्योतिष-विद्या प्रधान ग्रन्थ है । 'जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति जबूद्वीप का वर्णन
६३ 'तत्त्वार्थभाष्य' अ. १ सू. २० (पृष्ठ १५) ।
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