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________________ १०. मेरणसमाधि मरणसमाधि प्रकरण का अपर नाम मरणविभक्ति है। इसमें ६६३ गाथायें हैं। यह अन्य सभी प्रकीर्णकों से बड़ा है। इसकी रचना आठ प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर हुई है। वे निम्न हैं - १. मरणविभत्ति २. मरणविशोधि ३. मरणसमाधि ४. संलेखनाश्रुत ५. भक्तपरिज्ञा ६. आतुरप्रत्याख्यान ७. महाप्रत्याख्यान ८. आराधनापताका इसमें समाधिमरण के कारणभूत चौदह द्वार बताये हैं१. आलोचना २. संलेखना ३. क्षमापना ४. कालं ५. उत्सर्ग ६. उद्ग्रास ७. संथारा ८. निसर्ग ६. वैराग्य १०. मोक्ष ११. ध्यान विशेष १२. लेश्या १३. सम्यक्त्व १४. पादपोपगमन आलोचना निःशल्य होनी चाहिए यह बताते हुए आलोचना के दस दोष बताए हैं - . १. आकम्पन २. अनुमानन ३. दृष्ट ४. बादर ५. सूक्ष्म ६. छन्न ७. शब्दाकुल ८. बहुजन ६. अव्यक्त १०. तत्सेवी आलोचकों को इन दोषों का त्याग कर निष्कपट साधना करनी चाहिए और बारह प्रकार के तप की आराधना करनी चाहिए। . इसमें संलेखना के आभ्यन्तर और बाह्य दो प्रकार बताए गए हैं। कषायों को कृश करना आभ्यन्तर संलेखना है। काया को कृश करना बाह्य संलेखना है। साथ ही इसमें संलेखना की प्रक्रिया पर भी प्रकाश डाला गया है और पण्डित मरण का विवेचन करते हुए परीषह जयी, पादपोपगमन संथारा करने ६० 'सलेहणा य दुविहा अग्नितरिया य बहिरा घेव। अम्भितरिय कसाए, पामिरया होइ यसरी।।' -मरणसमाधि गाथा १७६ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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