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________________ ५५६ उपभोक्तावादी संस्कृति ने आज मानव को उस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है कि वह सुख, शान्ति की प्राप्ति के प्रयासों में दुःख और तनावों से ही ग्रस्त होता जा रहा है। भौतिक साधनों के माध्यम से सुख उपलब्ध करने का उसका यह प्रयास उसी तरह हास्यास्पद है जैसे एक वृद्ध महिला द्वारा झोंपड़ी में गुम हुई सुई को सड़क पर ढूंढ़ने का प्रयास करना। इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र में व्यापक रूप से प्रकाश डाला गया है। इसमें बड़े मनौवैज्ञानिक ढंग से उपभोक्तावादी जीवनदृष्टि से मुक्त होने का उपाय बतलाया गया है। इसके तेरहवें अध्ययन में एक बड़ी मार्मिक बात कही गई है :- सब गीत-गान विलाप हैं, नाट्य विडम्बना हैं, सब आभरण (आभूषण) भार हैं एवं सब कामभोग दुःखप्रद हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के चूर्णिकार ने इस गाथा की सोदाहरण विस्तृत व्याख्या की है। गीत को विलाप रूप कहा गया है । इसका आशय यह है कि गीत या तो इष्ट के वियोग से दुःखी होकर गाये जाते हैं या राग जन्य व्याकुलता से अभिभूत होकर गाये जाते हैं, अतः ये विलाप रूप ही हैं। नाटक को विडम्बना कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी स्त्री या पुरूष अपने प्रिय व्यक्ति के परितोष के लिये अथवा किसी धनवान व्यक्ति से धन की प्राप्ति के लिये नृत्य करता है; अतः ये सारी क्रियायें विडम्बना रूप है। आभूषण को भाररूप कहा हैं, क्योंकि जो व्यक्ति किसी की आज्ञा के वशवर्ती होकर यदि आभरण को धारण करता है तब तो वह उनके भार का अनुभव करते हुए पीड़ित होता है। किन्तु यदि स्वयं के राग के कारण या प्रदर्शन की भावना से आभरण को धारण करता है तब वह उसके भार को अनुभव नहीं करता है किन्तु वह भार रूप ही है। जहां राग होता है वहां व्यक्ति कष्ट को आसानी से सहन कर लेता है। एक महिला स्वयं की संतान को गोद में उठाकर लम्बी दूरी तय कर लेती है, उसे भार नहीं लगता है; किन्तु यदि उसे दूसरे के बच्चे को उठाना पड़े तो उसे बच्चा भारी लगता है। उसी प्रकार सारे गीत, गान, नाटक, आभूषण आदि भाररूप एवं दुःखप्रद हैं, किन्तु राग के वशीभूत व्यक्ति उनके भोग में दुःख का अनुभव नहीं करता है। . २३ 'सव्वं विलवियं गीय, सव्वं न विडबियं । सवे आभरणा भारा, सब्वे कामा दुहावा ।।' २४ उत्तराध्ययनपूर्णि, पत्र २६६ एवं २८७ । - उत्तराध्ययनसूत्र १३/१६ । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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