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________________ ५७६ आज दुनिया जितनी अशान्त है उतनी पहले कभी नहीं थी। ऐसी विषम स्थिति में मात्र अध्यात्म ही एक ऐसा रसायन है जो दुनिया को इस त्रासदी से मुक्त कर सकता है। आध्यात्मिक जीवनदृष्टि वैज्ञानिक जीवनदृष्टि है। यथार्थ में वह जीवन का विज्ञान है। जगत में मुख्यतः दो तत्त्व हैं - जीव (चेतन) और अजीव (जड़)। वर्तमान में प्रचलित विज्ञान जड़ का विज्ञान है क्योंकि वह पदार्थ तक सीमित होकर रह गया है, जबकि अध्यात्म जीव का विज्ञान है। 'विज्ञान साधनों का ज्ञान है तो अध्यात्म साध्य का ज्ञान'।' विज्ञान एवं अध्यात्म एक दूसरे के पूरक हैं जैसे जगत के सन्दर्भ में जड़ एवं चेतन दोनों का अपना-अपना महत्त्व है, वैसे ही जीवन की व्यवस्था में अध्यात्म एवं विज्ञान दोनों का महत्त्व है। इनमें से किसी एक की उपेक्षा करना जीवन में अव्यवस्था को आमंत्रण देना है। आचारांगसूत्र में अध्यात्म एवं विज्ञान का समन्वय निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया है :- 'जे आया से विण्ण्या जे विण्ण्या से आया' - जो आत्मा है वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वही आत्मा है।' विज्ञाता को जाने बिना विज्ञान अधूरा है क्योंकि वही विज्ञान का अधिष्ठान है। आज सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि विज्ञान अध्यात्म से विमुख होता जा रहा है; अतः वह मात्र जड़ तक सीमित हो गया। यद्यपि सभी भौतिक साधन भले ही शरीर की सुख सुविधा के लिये हैं, परन्तु इन्हें भोगने वाला शरीर नहीं कोई और है। जैसे भूख भले ही पेट में प्रतीत होती है पर खाया पेट से नहीं जाता है, वैसे ही शरीर की व्यवस्था में भी आत्मा को गौण नहीं किया जा सकता है। भौतिक सुख सुविधाओं के द्वारा मानव आकृति को सजा या संवारा जा सकता है, किन्तु उसकी प्रकृति में आन्तरिक रूपान्तरण नहीं किया जा सकता। आन्तरिक रूपान्तरण के लिए तो अध्यात्म ही अनिवार्य है। हमारे उपर्युक्त विवेचन का आशय आधुनिक विज्ञान की उपेक्षा करना नहीं है; क्योंकि वैज्ञानिक उपलब्धियों की उपेक्षा न तो सम्भव है और न ही औचित्यपूर्ण, किन्तु इतना अवश्य है कि विज्ञान में पूर्णता लाने के लिये अथवा जीवन , 'अध्यात्म और विज्ञान' २ आचारांग १/५/५/१०४ Jain Education International - डॉ. सागरमल जैन (श्रमण; अप्रैल-जून, १६६७) । - (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ४५) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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