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उत्तराध्ययनसूत्र की शिक्षाओं की प्रासंगिकता और उनका महत्त्व
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित सिद्धान्तों की वर्तमान में क्या प्रासंगिकता है ? यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। जैन धर्म के सामान्य सिद्धान्तों की प्रासंगिकता को लेकर विद्वानों एवं मनीषियों ने अपने-अपने विचार प्रस्तुत किये हैं । आज धार्मिक सिद्धान्तों की युगीन सन्दर्भों में प्रासंगिकता देखना अत्यावश्यक हो गया है। प्रस्तुत शोध की परिपूर्णता भी इसी में है कि हम उत्तराध्ययनसूत्र के सिद्धान्तों की वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिकता को समझने का प्रयत्न करें।
किसी भी शास्त्र, सिद्धान्त, वस्तु या व्यक्ति की हमारे लिये उपयोगिता तभी सिद्ध होती है जब उसका सीधा प्रभाव हमारे जीवन-व्यवहार पर पड़ता हो । अतः उत्तराध्ययनसूत्र की शिक्षाओं की वर्तमान सन्दर्भ में क्या प्रासंगिकता है ? इस पर विमर्श करना आवश्यक है।
वर्तमानकाल में सम्पूर्ण विश्व अशान्त एवं तनावग्रस्त है। भौतिक सुख-समृद्धि का अम्बार लग रहा है; वैज्ञानिक-साधनों की भरमार हैं, फिर भी आज मानव अत्याधिक तनावग्रस्त है। वह मानसिक सुख एवं शान्ति की उपलब्धि नहीं कर पाया है। इसका मुख्य कारण आज की उपभोक्तावादी संस्कृति है। अपनी भौतिकवादी जीवनदृष्टि के कारण आज मनुष्य सुख और शान्ति की खोज बाह्य वस्तुओं में कर रहा है; जबकि मानसिक सुख और शान्ति हमारी आध्यात्मिक जीवनदृष्टि पर आधारित है ।
आज का युग वैज्ञानिक युग कहलाता है। वैज्ञानिक खोजों और तकनीकी उपलब्धियों ने व्यक्ति के जीवन के विविध पक्षों को प्रभावित किया है । इसके कारण मानवों के रहन-सहन, आचार-विचार, धर्म-कर्म, रीति-नीति तथा सभ्यता और संस्कृति में बहुत बड़ा परिवर्तन आ गया है; किन्तु इतना सब होते हुए भी यह सोचना जरूरी है कि इस तथाकथित प्रगति के कारण विश्व में सुख और शान्ति बढ़ी या घटी है ? स्पष्ट है कि भौतिक सुख-साधनों की वृद्धि के साथ विश्व में पहले की अपेक्षा अशान्ति, असन्तोष, दुःख और क्लेश की वृद्धि हुई है।
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