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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित अन्य धार्मिक एवं दार्शनिक परम्परायें उत्तराध्ययनसूत्र के अधिकांश अध्ययन भगवान महावीर के समकालीन हैं। इस में उन्हीं धर्म एवं दर्शन की परम्पराओं का निर्देश उपलब्ध होता है जो प्रायः ईस्वी पूर्व पांचवीं/छठी शताब्दी की रही हैं। इसके अठारहवें अध्ययन में उस समय की प्रचलित चार दार्शनिक मान्यताओं का उल्लेख मिलता है- (१) क्रियावादी (२) अक्रियावादी (३) विनयवादी और (४) अज्ञानवादी।' - उत्तराध्ययनसूत्र में षट्दर्शनों में से किसी का भी स्पष्ट नाम निर्देश नहीं मिलता है। इसमें हमें चार्वाकदर्शन, सांख्य दर्शन और न्याय – वैशेषिक दर्शन की कुछ मान्यताओं के पूर्व रूप उपलब्ध हो जाते हैं। ऐसा लगता है कि उत्तराध्ययनसूत्र में अभिव्यक्त ये विचारधारायें परवर्ती काल में इन दार्शनिक सम्प्रदायों के विकास , का कारण रही हैं, जैसे सांख्यदर्शन के सत्कार्यवाद का उल्लेख उत्तराध्ययनसूत्र के इषुकारीय नामक चौदहवें अध्ययन में मिलता है। उत्तराध्ययनसूत्र की द्रव्य सम्बन्धी परिभाषा न्याय – वैशेषिक दर्शन की द्रव्य सम्बन्धी मान्यता से कुछ निकट प्रतीत होती है। इसी प्रकार भौतिकवादी चार्वाक दृष्टिकोण का उल्लेख भी अनेक स्थानों पर बिना उसका नाम निर्देश किये उपलब्ध होता है। . इससे यह नहीं समझना चाहिए कि उत्तराध्ययनसूत्र की स्थिति इन दर्शनों से परवर्ती है, क्योंकि इसमें कहीं भी किसी भी दर्शन का नाम निर्देश नहीं किया गया है। वस्तुतः दार्शनिक मान्यतायें पहले अस्तित्व में आती हैं फिर इनसे ही दार्शनिक सम्प्रदायों का विकास होता है। उपनिषदों में भी विभिन्न दार्शनिक मतों के ''किरिवं अकिरियं विणयं, अन्नाणं च महामुणी। - एएहिं चउहि ठाणेहि, मेयन्ने किं पभासई ।। २ जहा य अग्गी, अरणीउसतो, खीरे घयं तेल्ल महातिलेस ३ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/६ ४ उत्तराध्ययनसूत्र - ५/५, ६,६७/६ | - उत्तराध्ययनसूत्र - १८/२३ । - उत्तराध्ययनसूत्र - १४/१८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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