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वर्तमान में भी मुनि अपनी दिनचर्या में अनेक बार ध्यान करते हैं। मुनि की चर्या के प्रत्येक अंग के साथ ध्यान का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। मुनि को निद्रा से पूर्व तथा निद्रा त्याग के बाद गमनागमन एवं मलमूत्र विसर्जन आदि की क्रिया के पश्चात्, प्रातःकालीन तथा सांयकालीन प्रतिक्रमण के समय और अन्य ऐसे ही अनेक प्रसंगों पर ध्यान करना होता है। इसे हम इस प्रकार भी समझ सकते हैं कि जैनपरम्परा के अनुसार मुनि को प्रत्येक कार्य सजगतापूर्वक अर्थात् ध्यान पूर्वक करना होता है । इस प्रकार मुनि के जीवन का हर क्षण ध्यानमय होता है। संक्षेप. में कहा जाय तो मुनि की प्रत्येक क्रिया के साथ ध्यान की प्रक्रिया जुड़ी हुई है।
ध्यान की परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में ध्यान सम्बन्धी चर्चा अनेक स्थलों पर की गई है। इसके प्रथम अध्ययन में कहा गया है कि मुनि को स्वाध्यायकाल में अध्ययन करना चाहिये तथा तत्पश्चात् ध्यान करना चाहिये। इसके अठारहवें अध्ययन में गर्दभालिमुनि के धर्मध्यान में स्थित होने का उल्लेख है।
छबीसवें अध्ययन में मुनि की दिनचर्या में ध्यान साधना को अनिवार्य माना गया है; तीसवें अध्ययन में ध्यान को आभ्यन्तरतप के अन्तर्गत रखते हुये इसके मुख्यतः चार भेदों का उल्लेख किया गया है। फिर भी उत्तराध्ययनसूत्र में हमें ध्यान की ऐसी कोई परिभाषा उपलब्ध नहीं होती है जिसके आधार पर ध्यान के स्वरूप को समझा जा सके।
उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकारों में शान्त्याचार्य तथा कमलसंयमोपाध्याय ने ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि स्थिर अध्यवसाय ध्यान है।'' उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में ध्यान के सन्दर्भ में प्राप्त यह पंक्ति सम्भवतः ध्यानशतक से उद्धृत है।
तत्त्वार्थसूत्र में चित्त की एक विषय में एकाग्रता को ध्यान कहा है। यहां ज्ञातव्य है कि चित्त की किसी एक विषय में एकाग्रता को ही ध्यान कहा गया
७१ उत्तराध्ययनसूत्र २६/१२ एवं १ । ७२ उत्तराध्ययनसूत्र १/१०; १८/४ । ७३ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ६०६
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ३०११ ७४ तत्त्वार्थसूत्र ६/२७ ।
- (शान्त्याचार्य)।
___- (कमलसंयमोपाध्याय)।
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