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(१) सामायिक
समभाव की साधना सामायिक कहलाती है। सामायिक जैन साधना का प्राण है । जैन ग्रन्थों में इसे अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है -
(१) सामायिक शब्द सम+आय+इक के संयोग से बना है; राग-द्वेष में मध्यस्थ रहना 'सम' है। आय का अर्थ लाभ है। इस प्रकार जिससे सम रूप मध्यस्थ भावों की प्राप्ति (आय) हो वह सामायिक है।
(२) सम्+अयन+इक से भी सामायिक शब्द निष्पन्न होता है अर्थात् मोक्ष मार्ग के साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्र ‘सम' है उसमें 'अयन' अर्थात् प्रवृत्ति करना सामायिक है।
(३) सम् शब्द सम्यक् का भी द्योतक है तथा अयन का एक अर्थ आचरण भी किया जाता है अतः श्रेष्ठ (सम्यक) आचरण सामायिक है। उपर्युक्त तीनों अर्थो में यही प्रतिध्वनित होता है कि समताभाव की प्राप्ति सामायिक है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखना सामायिक है। यही बात गीता में भी कहीं गई है । उसके अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि, सुख-दुःख, लौह-कंचन, प्रिय–अप्रिय, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान और शत्रु-मित्र में समभाव रखना ही समत्व योग है। गीता में समत्व योग को योगों में सर्वश्रेष्ठ योग माना गया है।189
.. उत्तराध्ययनसूत्र में 'सावद्ययोगविरति को सामायिक का फल बताया है अर्थात् सामायिक फल असत् प्रवृत्ति (पाप कार्यों) से विरति है। 'सामायिक' एवं 'सावद्ययोगविरति में कार्य-कारण सम्बन्ध है । इसमें "सामायिक' कार्य है, 'सावद्ययोगविरति कारण है । यहां प्रश्न होता है कार्य एवं कारण एक साथ कैसे हो सकते हैं ? इसका उत्तर देते हुये टीकाकार शान्त्याचार्य ने कहा है - 'वृक्ष कारण है और छाया कार्य है फिर भी दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं इसी प्रकार सामायिक एवं सावद्ययोगविरति एक साथ हो सकते हैं। 190
१६७ श्रमणसूत्र, पृष्ठ ३५ । १५८ उत्तराध्ययनसूत्र - १६/६० । १८६ गीता - ६/३२; १४/२४, २५ । १६० उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र -५८०
- (शान्त्याचार्य)।
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