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२. अर्धपेटा : पेटिका के समान गांव की चार श्रेणी में कल्पना करके चारों श्रेणियों में न घूमकर दो श्रेणियों के घरों में ही आहार के लिए जाना अर्धपेटा क्षेत्र ऊणोदरी तप है।
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३. गोमूत्रिका : गाय के मूत्र के समान घरों की कल्पना करके उनमें आहार के लिये जाना गोमूत्रिका क्षेत्रऊणोदरी तप है।
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४. पतंगवीथिका : जैसे पतंग उड़ते समय कभी यहां तो कभी वहां होती है वैसे ही बीच-बीच में घरों को छोड़ते हुए आहार लेना पतंगविथिका भिक्षाचर्या है। उदाहरण के लिए, पहले एक घर से आहार लिया फिर पास के पांच-छः घरों को छोड़-छोड़ कर आहार ग्रहण करना पतंगवीथिका क्षेत्रऊणोदरी तप है।
५. शंबूकावर्त शंखावर्त : शंख के आवर्त के समान घूमकर गौचरी
आहार लाना - शंखावर्त क्षेत्रऊणोदरी तप है। यह आभ्यन्तर और बाह्य के भेद से दो प्रकार का होता है।
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६. आयतगत्वाप्रत्यागत्वा : वीथिका के अन्तिम छोर तक जाकर लौटते समय गौचरी ग्रहण करने को आयतगत्वाप्रत्यागत्वा कहा जाता है।
इस प्रकार क्षेत्रउणोदरी के पूर्वोक्त छह भेद हैं ।..
( 3 ) कालऊणोदरी : भिक्षा के लिए जो नियत समय है उसमें भिक्षा के लिए जाना यह कालऊणोदरी है।
(4) भावऊणोदरी : भिक्षा प्राप्ति अर्थात् आहार के लिये अभिग्रह (संकल्प) धारण करना भावऊणोदरी है।
३) भिक्षाचर्या : यह तीसरा बाह्यतप है - इसे वृत्तिसंक्षेप या वृत्तिपरिसंख्यान भी कहा जाता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार आठ प्रकार के गोचराग्रों, सात प्रकार की एषणाओं तथा अन्य विविध अभिग्रहों के द्वारा भिक्षा ग्रहण करना भिक्षाचर्या तप है। 109 क्षेत्र ऊणोदरी के छः प्रकारों में शंबूकावर्त के बाह्य एवं आभ्यन्तर इन दो भेदों को तथा आयतगत्वाप्रत्यागत्वा के दो भेदों को भिन्न-भिन्न मान लेने पर यहां ग्रोचराग्र के आठ प्रकार कहे गये हैं। सात एषणायें निम्न हैं
१०६ उत्तराध्ययनसूत्र - ३० / २५ ।
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