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उत्तराध्ययन की टीकाओं में राग-द्वेष या विक्षोभ से रहित चित्त की अवस्था तथा सभी प्रकार के सावद्य/पापमय व्यापारों से रहित आचरण कों सामायिक चारित्र कहा गया है। पण्डित सुखलालजी के अनुसार समभाव में स्थित रहने के लिए सम्पूर्ण अशुद्ध प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है। इसके निम्न दो भेद बतलाए हैं- (क) इत्वरकालिक (ख) यावत्कथिक। . .
(क) इत्वरकालिक : जो कुछ समय के लिए ग्रहण की जाती है, वह इत्वरकालिक सामायिक है । इसकी साधना गृहस्थ उपासक करते हैं। ...
(ख) यावत्कथिक : सम्पूर्ण जीवन के लिए ग्रहण किया गया सामायिकचारित्र यावत्कथिक सामायिकचारित्र कहलाता है । इसे श्रमण छोटी दीक्षा के समय स्वीकार करते हैं। २. छेदोपस्थापनीयचारित्र :
उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार जिस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद करके साधक को महाव्रत प्रदान किये जाते हैं, वह छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है। परिस्थितियों के आधार पर इसके दो भेद किये जाते हैं
(क) निरतिचार छेदोपस्थापनीयचारित्र' : सामायिकचारित्र अर्थात् छोटी दीक्षा के पश्चात् साधक की योग्यता को परख लेने एवं अपेक्षित शास्त्राध्ययन के द्वारा मुनिजीवन के नियमों से पूर्णतया परिचित हो जाने पर जब महाव्रतों में स्थापित किया जाता है अर्थात् बड़ी दीक्षा दी जाती है तो वह निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र कहलाता है। इसी प्रकार एक तीर्थकर के तीर्थ से दूसरे तीर्थकर के तीर्थ में जाने वाले साधक का चारित्र भी निरतिचार छेदोपस्थापनीयचारित्र होता है।
(ख) सातिचार छेदोपस्थापनीयचारित्र : मूलगुणों का घात करने पर अर्थात् पूर्व गृहीत संयम में दोषापत्ति आने पर जब पूर्व दीक्षा पर्याय का छेद करके महाव्रतों का पुनः आरोपण किया जाता है तो वह सातिचार छेदोपस्थापनीयचारित्र
१६ (क) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८१७ (शान्त्याचार्य) ।
(ख) उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - २८२२ (कमलसंयम उपाध्याय) । ६० तत्त्वार्थसूत्र - पं. सुखलाल जी पृष्ठ ३५२ ।
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