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इससे यह प्रतिफलित होता है कि प्रतिज्ञा भंग की अपेक्षा मृत्यु का वरण करना श्रेयस्कर है, क्योंकि मारने वाले का प्रतिकार करना अहिंसाव्रत को खण्डित करना है। यही बात आचारांग में भी कही गई है।2
उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ अध्ययन में कहा गया है कि जब जीवन से लाभ होता न दिखे, आत्मगुणों के संरक्षण की शक्ति न हो तो परिज्ञानपूर्वक शरीर का त्याग कर देना चाहिये।
उत्तराध्ययनसूत्र के अतिरिक्त आचारांग, अन्तकृतदशांग, उपासकदशांग, अनुत्तरोपपातिकदशांग में उन परिस्थितियों का चित्रण है; जिनके आधार पर समाधिमरण किया जाता है। इन विविध आगमों में समाधिमरण की निम्न परिस्थितियों का निर्देश उपलब्ध होता है।
(9) जब चारित्रिक मूल्यों एवं जीवन के संरक्षण में से एक ही विकल्प का चयन करना हो तो ऐसी स्थिति में शरीर के स्वस्थ रहते हुए भी समाधिमरण को स्वीकार किया जा सकता है। जैसे - शील की सुरक्षा के लिए किसी नारी का श्वासनिरोध आदि के द्वारा प्राण त्याग करना।
(२) मरणान्तिक कष्ट उपस्थित होने पर भी समाधिमरण स्वीकार किया जाता है। ऐसी परिस्थिति में सागारी अनशन स्वीकार किया जाता है और उस परिस्थिति के दूर होने पर पुनः सामान्य रूप से जीवन यात्रा का निर्वाह किया जा सकता है।
(३) जब शरीर इतना अशक्त हो जाय कि वह संयम साधना में बाधक बन जाय तथा अपने संघस्थ साथियों के लिए भारस्वरूप हो जाय. तो समभाव पूर्वक समाधिमरण स्वीकार कर लेना चाहिये।
. ... (४) जब मृत्यु जीवन के द्वार पर दस्तक दे रही हो और शरीर को लम्बे समय तक टिकाये रखना सम्भव न हो यथा - केंसर आदि असाध्य रोगों की स्थिति में समाधिमरण स्वीकार किया जाता है।
साधक का आहार करना और न करना दोनों ही सकारण (सप्रयोजन) है। अतः जब तक शरीर मोक्ष मार्ग की साधना में सहायक रहे तब तक शरीर का सामान्यतः पोषण करना चाहिए। परन्तु जब शरीर साधना में उपयोगी न रहे, वह
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खंड १, पृष्ठ ३१)।
५२ आचारांग - १/३/३/४६ ५३ उत्तराध्ययनसूत्र - ४/७ ।
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