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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित कर्ममीमांसा विश्व में सर्वत्र विषमता ही विषमता दृष्टिगोचर होती है। प्रत्येक प्राणी एक दूसरे से भिन्न है, उनमें स्वभाव, आचार एवं व्यवहारगत अनेक भिन्नतायें हैं। प्राणीसृष्टि में तो व्यापक विविधता है ही, किन्तु केवल मानवसृष्टि पर दृष्टिपात करें तो उसमें भी शरीर, सुख, दुःख, बौद्धिक क्षमता या अक्षमता की विविधता दृष्टिगोचर होती है। इस विश्व-वैविध्य के सन्दर्भ में विचारकों ने अनेक कारण प्रस्तुत किए हैं - कुछ विचारकों की मान्यता है कि समस्त विचित्रताओं का एकमात्र कारण 'काल' है। अन्य विचारक 'वस्तुस्वभाव' को इस वैविध्य का आधार मानते हैं। कुछ चिन्तकों के अनुसार 'नियति' ही सब कुछ है अर्थात् संसार के समस्त क्रियाकलाप/घटनाक्रम पूर्वनियत हैं; तो कुछ दार्शनिक 'यदृच्छा को जगत-वैचित्र्य का कारण मानते हैं। कुछ चिन्तक ‘पंचमहाभूतों को ही वैविध्य का कारण मानते हैं। उनके अनुसार यह समस्त संसार महाभूतों के विविध संयोगों का ही प्रतिफल है। कुछ विचारकों का मन्तव्य है कि यह संसार त्रिगुणात्मक 'प्रकृति का ही खेल है; मानवीय सुख दुःख का आधार भी प्रकृति ही है। कुछ विचारकों के अनुसार जगत की विचित्रता 'ईश्वरीय' इच्छा का प्रतिफल है। अतः जो कुछ भी होता है उसका कारण सृष्टि के नियामक ईश्वर की इच्छा ही है। इन सबसे भिन्न कुछ मनीषी पुरूषार्थ अर्थात् वैयक्तिक प्रयत्नों को ही सारे परिवर्तन का कारण मानते हैं। - जगत की विचित्रता के सन्दर्भ में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा पंचमहाभूत, प्रकृति, ईश्वर तथा पुरूषार्थ आदि मान्यतायें समीचीन प्रतीत नहीं होती क्योंकि ये सभी एकांगी दृष्टिकोण की परिचायक हैं। कालवाद की समालोचना करते हुए डॉ. सागरमल जैन ने लिखा है: 'व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूति का आधार काल नहीं हो सकता है. क्योंकि काल ही यदि कारण है तो एक ही समय में एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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