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आत्मा का प्रत्यय भारतीय दर्शन का केन्द्रीभूत तत्त्व है; भारतीय विचारकों ने आत्मा के अस्तित्व, स्वरूप, महत्त्व आदि के विषय में व्यापक रूप से चिन्तन किया है। यद्यपि उनमें आत्मा के स्वरूप, नित्यता आदि को लेकर मतभेद अवश्य हैं; इनमें से कोई भी दार्शनिक आत्मा की सत्ता को सर्वथा अस्वीकार नहीं करते हैं। फिर की पाश्चात्य दर्शन में भी आत्मा के सन्दर्भ में विशद विचार प्रस्तुत किये गये हैं ।
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित आत्ममीमांसा
५. १ आत्मा का अस्तित्व
आत्मा के अस्तित्व के सन्दर्भ में दार्शनिक जगत में दो प्रकार की विचारधारायें उपलब्ध होती हैं। एक वह जो आत्मा की नित्यता में विश्वास रखती है, दूसरी वह जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करके भी उसे अनित्य / परिवर्तनशील और पांच भूतों से निर्मित मानती है। चार्वाकदर्शन आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं करता है । आत्मा की अस्वीकृति से उसका तात्पर्य इतना ही है कि आत्मा नित्य या मौलिक तत्त्व नहीं है ।
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उत्तराध्ययन सूत्र के चौदहवें अध्ययन में चार्वाकदर्शन सम्बन्धी चिन्तन उपलब्ध होता है' । उस को स्पष्ट करते हुए टीकाकार शान्त्याचार्य ने लिखा है कि चार्वाकदर्शन आत्मा के स्वतन्त्र एवं नित्य अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है। • उसके अनुसार कण्वादि में व्यवस्थित संस्कार करने पर जैसे मादक शक्ति का संचार होता है उसी प्रकार भूतों के समुदाय के विशिष्ट संयोग रूप शरीर की संरचना होने पर चैतन्य शक्ति उत्पन्न होती है और मेघसमूह के समान समय आनेपर विनष्ट हो
१ 'जहा य अग्गी अरणीउसंतो, खीरे घयं तेल्ल महातिलेसु । एमेव जाया! सरीरंसि सत्ता, संमुच्छई नासइ नावचिट्ठे ।।'
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उत्तराध्ययनसूत्र १४ / १८ ।
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