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२५. यज्ञीय : पच्चीसवें अध्ययन का नाम 'जन्नइज्जं-यज्ञीय' है। इसमें ४५ गाथायें हैं। जिसमें मुख्यतः वास्तविक यज्ञ क्या है ? एवं सच्चा ब्राह्मण कौन है ? इसका विवेचन किया गया है।
वाराणसी नगरी में जयघोष एवं विजयघोष नामक दो भाई रहते थे। एक बार जयघोष गंगा नदी में स्नान के लिए गया। वहां उसने देखा कि एक सर्प मेंढक को निगल रहा था। इतने में एक कुरर पक्षी आया। उसने सर्प को पकड़ लिया। मेंढक सर्प का भक्ष्य बन रहा था एवं सर्प कुरर का। यह देखकर जयघोष का मन विरक्त हो गया और वह मुनि बन गया।
एक बार जयघोष वाराणसी में भिक्षा के लिये निकले। वे भ्रमण करते हुए विजयघोष के यज्ञ-मण्डप में पहुंच गये, किन्तु विजयघोष ने उन्हें भिक्षा देने से मना कर दिया। विजयघोष के मना करने पर भी मुनि शान्त रहे। .यथार्थ में वे तो भिक्षा के निमित्त विजयघोष को सत्य का बोध कराने आये थे। अतः उन्होंने यज्ञ का
अहिंसक/आध्यात्मिक स्वरूप प्रतिपादित किया तथा ब्राह्मणोचित कर्त्तव्य का दिग्दर्शन भी कराया।
अन्त में मुनि ने गीले एवं सूखे मिट्टी के गोले का दृष्टान्त देकर विजयघोष को आसक्त एवं अनासक्त जीव का स्वरूप समझाया,84 जिसे सुनकर विजयघोष ने संयम स्वीकार कर लिया।
इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में जातिवाद के खण्डन के साथ कर्मकाण्ड से मुक्त धर्म अर्थात् सत्यधर्म का निरूपण किया गया है। २६. सामाचारी : 'सामाचारी' उत्तराध्ययनसूत्र का छब्बीसवां अध्ययन है। इसमें ५३ गाथायें हैं। . जैनपरम्परा में मुनि की आचारसंहिता को सामाचारी कहा जाता है। यह आचार दो प्रकार का है- व्रतात्मक एवं व्यवहारात्मक। पंचमहाव्रत रूप आचार व्रतात्मक सामाचारी है तथा परस्परानुग्रह रूप आचार व्यवहारात्मक सामाचारी है।
__ प्रस्तुत अध्ययन में व्यवहारात्मक सामाचारी का व्यापक रूप से वर्णन किया गया है। जिसमें साधक के परस्पर व्यवहार एवं कर्त्तव्य का संकेत हैं, जैसे मुनि कार्यवश कहीं बाहर जाएं तो गुरूजनों को सूचना देकर जाएं, पुनः वापिस
१४ उत्तराध्ययनसूत्र २५/४० एवं ४१।
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