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________________ निरूपण करते हुए इसमें बहुश्रुत को अनेक उपमाओं से उपमित किया गया है, जो. । प्रस्तुत हैं शंख में रखे हुए दूध की तरह निर्मल, देशीय कन्थक अश्व की तरह शीलसम्पन्न, शूरवीर योद्धा की तरह पराक्रमी, हाथी की तरह अपराजेय, यूथाधिपति वृषभ की तरह गणप्रमुख, सिंह की तरह साहसी, वासुदेव की तरह बलशाली, चौदह रत्नों से सम्पन्न चक्रवर्ती की तरह चौदह पूर्वधर इन्द्र की तरह ऐश्वर्यशाली, सूर्य की. तरह तेजस्वी, चन्द्र की तरह सौम्य, अनेकविध धन धान्य से समृद्ध कोष्ठागार की तरह ज्ञान से परिपूर्ण, जम्बूद्वीप, सीता नदी एवं मेरुपर्वत के समान श्रेष्ठ रत्नों से पूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र की तरह अक्षय ज्ञान रूपी रत्न से परिपूर्ण ऐसे विशाल एवं गंभीर हृदय वाले बहुश्रुत होते हैं। इस अध्ययन के अन्त में ज्ञानार्जन के निम्न दो प्रयोजन बतलाये हैं - . (१) स्वयं की मुक्ति के लिए । (२) दूसरों को मोक्षपथ पर अग्रसर करने के लिए । . इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन साधना के क्षेत्र में ज्ञान और ज्ञानी के विशिष्ट महत्त्व को प्रतिष्ठित करता है। १२. हरिकेशीय : प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'हरिकेशीय' है । इसमें हरिकेशबल नामक साधु का वृत्तान्त है। इसमें ४७ गाथायें हैं। हरिकेशबल मुनि चाण्डाल कुल में जन्मे थे। फिर भी उन्होंने संयम स्वीकार किया । कठोर साधना के द्वारा उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि साधना के क्षेत्र में जाति का कुछ भी महत्त्व नहीं, महत्त्व है तप और त्याग का । ___हरिकेशबल के वचपन की एक घटना है जिसने उसके समूचे जीवन को बदल डाला । एक दिन की बात है उसने देखा कि कुछ बालक एक ओर खेल रहे है इतने में वहां एक सर्प आ निकला । लोकों ने तत्काल उसे मार दिया । थोड़ी देर में एक अलसिया नाग निकला । लोकों ने उसे निर्विष समझ कर यों ही छोड़ दिया । इस घटना से हरिकेशबल को सोचने के लिए बाध्य कर दिया । उसने इस पर चिन्तन किया और यह निष्कर्ष निकाला कि प्राणी अपनी क्रूरता के कारण मारा जाता है और अपनी सौम्यता के कारण बच जाता है । इसी प्रकार व्यक्ति अपने ही अवगुणों से अपमानित एवं अपने ही सद्गुणों से सम्मानित होता है। इस प्रकार के शुभ चिन्तन से हरिकेश को जाति स्मरण ज्ञान हो गया और वह मुनि बन गया। उनके आध्यात्मिक विकास में जाति अवरोध नहीं डाल सकी। वस्तुतः गुणों का सम्बन्ध व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण के साथ है। उत्थान हो या पतन, विनाश हो या विकास सब के लिये व्यक्ति का स्वयं का आचरण ही उत्तरदायी है, जाति या कुल नहीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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