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योग-शास्त्र
से हपूर्वक, बल पूर्वक रोका गया मन थोड़ी देर के बाद जब छूटता. है, तो सहसा टूटे हुए बांध की तरह तीव्र वेग से प्रवाहित होता है और सारी साधना को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। इसलिए जैन परम्परा में योगों का निरोष करने के लिए हठयोग के स्थान में समिति-गुप्ति का विधान किया गया है, जिसे सहज योग भी कहते हैं। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जब भी साधक पाने-जाने, उठने-बैठने, खाने-पीने, पढ़ने-पढ़ाने आदि की जो भी क्रिया करे, उस समय वह अपने योगों को अन्यत्र से हटाकर उस क्रिया में केन्द्रित कर ले। वह उस समय तद्रूप बन जाए । इससे मन इतस्ततः न भटक कर एक जगह केन्द्रित हो जाएगा और उसकी साधना निर्बाध गति से प्रमतिशील बनी रहेगी।
जैनागमों में योग-साधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग हुआ. है। ध्यान का अर्थ है-अपने योगों को प्रात्म-चिन्तन में केन्द्रित करना । ध्यान में काय-योग की प्रवृत्ति को भी इतना रोक लिया जाता है कि चिन्तन के लिए मोष्ठ एवं जिह्वा को हिलाने की भी अनुमति नहीं है। उसमें केवल सांस के आवागमन के अतिरिक्त कोई हरकत नहीं की जाती । इस तरह काय स्थिरता के साथ मन और वचन को भी स्थिर किया जाता है। जब मन चिन्तन में संलग्न हो जाता है, तब उसे यथार्थ में ध्यान एवं साधना कहते हैं। एकाग्रता के अभाव में वह साधना भाव-यथार्थ साधना नहीं, बल्कि द्रव्य-साधना कहलाती है। भाव-आवश्यक की व्याख्या करते हुए कहा है-प्रत्येक साधक-भले ही वह साधु हो या साध्वी, श्रावक हो या श्राविका, जब अपना मन, चित्त, लेश्या, अध्यवसाय, उपयोग उसमें लगा देता है, उसमें प्रीति रखता है, उसकी भावना करता है और अपने मन को अन्यत्र नहीं जाने देती है, इस तरह जो साधक उभय काल आवश्यक प्रतिक्रमण करता है, उसे 'भाव-पावश्यक' कहते हैं। इसके अभाव में किया जाने वाला १. अनुयोगद्वार सूत्र, श्रुताधिकार, २७ ।
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