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________________ . 266 योग-शास्त्र ___ हे उपायमूढ, हे भगवन्, हे प्रात्मन् ! तू धन, यश आदि इष्ट पदार्थों के संयोग को और रोग, दरिद्रता आदि अनिष्ट के वियोग की अभिलाषा से प्रेरित होकर परमात्मा, देवी, देवता आदि दूसरों को प्रसन्न करने के लिए क्यों परेशान होता है ? तू जरा अपनी आत्मा को भी तो प्रसन्न कर / ऐसा करने से पौद्गलिक सम्पत्ति की तो बात ही क्या, परमज्योति पर भी तेरा विशाल साम्राज्य स्थापित हो जाएगा। टिप्पण-कहने का तात्पर्य यह है कि परोपासना को त्याग कर प्रात्मा जब प्रात्मोपासना में तल्लीन होता है, तभी उसे आत्मिक तेज की प्राप्ति होती है और तभी उसमें उन्मनीभाव जागृत होता है। अत: साधक को अपनी आत्मा की साधना करना चाहिए और सदा आत्म-ज्योति को जगाने का प्रयत्न करना चाहिए / उपसंहार या शास्त्रात्सुगुरोमुखादनुभवाच्चाज्ञायि किंचित्, क्वचित् योगस्योपनिषद् विवेकिपरिषच्चेतश्चमत्कारिणी। श्री चौलुक्यकुमारपालनृपतेरत्यर्थमभ्यर्थनादाचार्येण निवेषिता पथि गिरां श्रीहेमचन्द्रेण सा // 55 / / चौलुक्यवंशीय श्री कुमारपाल राजा की प्रबल प्रार्थना पर प्राचार्य हेमचन्द्र ने शास्त्र, सद्गुरु के उपदेश एवं स्वानुभव से प्राप्त ज्ञान के प्राधार से विवेकवान् जनता के चित्त में चमत्कार उत्पन्न करने वाली इस योग-उपनिषद को लिपि-बद्ध किया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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