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________________ योग-शास्त्र अग्गिवेस्सन को कहते हैं कि मैं श्वासोच्छ्वास का निरोध करना चाहता था, इसलिए मैं मुख, नाक एवं कर्ण- कान में से निकलते हुए सांस को रोकने का, उसे निरोध करने का प्रयत्न करता रहा ।' परन्तु, इससे उन्हें समाधि प्राप्त नहीं हुई। इसलिए बोधित्व प्राप्त होने के बाद तथागत वुद्ध ने हठयोग की साधना का निषेध किया और आर्य अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया ।२ - इस अष्टांगिक मार्ग में समाधि को विशेष महत्व दिया गया है। वस्तुतः समाधि के रक्षण के लिए ही आर्य अष्टांग में सात अंगों का वर्णन किया है और उन सात अंगों में एकता बनाए रखने के लिए 'समाधि' आवश्यक है। इस सम्यक्समाधि को प्राप्त करने के लिए चार प्रकार के ध्यान का वर्णन किया गया है-१. वितर्क-विचार-प्रीति-सुख-एकाग्रता सहित, २. प्रीति-सुख-एकाग्रता सहित, ३. सुख-एकाग्रता सहित, और ४. एकाग्रता सहित । प्रस्तुत में वितर्क का अर्थ है-ऊह अर्थात् सर्वप्रथम किसी पालम्बन को ग्रहण करके समाधि के विषय में चित्त के प्रवेश को 'वितर्क' कहते हैं, उस विषय में गहरे उतरने को 'विचार' कहते हैं, उससे जो मानन्द उपलब्ध होता है, उसे 'प्रीति' कहते हैं। उस मानन्द से १. अंगुतरनिकाय, ६३ । २. १. सम्यग्दृष्टि, २. सम्यक्संकल्प, ३. सम्यग्वाणी, ४. सम्यक्कर्म, ५. सम्यकाजीविका, ६. सम्यग्ज्यायाम, ७. सम्यक्स्मृति और ८. सम्यक्समाधि। -संयुतनिकाय ५, १०, विभंग, ३१७-२६. ३. मझियनिकाय, दीघनिकाय, सामअकफल सुतं ; बुद्धलीलासार ..संग्रह, पृष्ट १२८ ; समाधि मार्ग (धर्मानन्द कोशम्बी), पृष्ठ १५ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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