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________________ एकादश प्रकाश २७३ अस्य पुरस्तानिनदन् विजृभते दुदुभिर्नभसि तारम् । कुर्वाणो निर्वाण - प्रयाण - कल्याणमिव सद्यः ॥ ३६ ॥ भगवान् के आगे मधुर स्वर में घोष करती हुई देव-दुदुभि ऐसी प्रतीति होती है, जैसे भगवान् के निर्वाणगमन-कल्याणक को सूचित कर रही हो। पञ्चापि चेन्द्रियार्थाः क्षणान्मनोज्ञीभवन्ति तदुपान्ते । को वा न गुणोत्कर्ष सविधे महतामवाप्नोति ।। ३७ ॥ भगवान् के सन्निकट पाँचों इन्द्रियों के विषय क्षण-भर में मनोज्ञ बन जाते हैं। क्योंकि महापुरुषों के संसर्ग में आने पर किसके गुणों का उत्कर्ष नहीं होता ? महापुरुषों की संगति से गुणों में वृद्धि होती ही है । अस्य नख-रोमाणि च वर्धिष्णून्यपि नेह प्रवर्धन्ते । भव - शत - सञ्चित - कर्मच्छेदं दृष्टवव भीतानि ॥ ३८ ॥ भगवान् के नख और केश नहीं बढ़ते हैं । यद्यपि केश-नख आदि का स्वभाव बढ़ना है, किन्तु सैकड़ों भवों के संचित कर्मों का छेदन देखकर वे भयभीत-से हो जाते हैं और इस कारण वे बढ़ने का साहस नहीं कर पाते । शमयन्ति तदभ्यणे रजांसि गन्धजल-वृष्टिभिर्देवाः।। उन्निद्र-कुसुम-वृष्टिभिरशेषतः सुरभयन्ति भुवम् ॥ ३६ ।। भगवान् के आसपास सुगंधित जल की वर्षा करके देव धूल को शान्त कर देते हैं और विकसित पुष्पों की वर्षा करके भूमि को सुगंधित कर देते हैं। छत्रत्रयी पवित्रा विभोरुपरि भक्तितस्त्रिदशराजैः । गंगास्रोतस्त्रितयीव धार्यते मण्डलीकृत्य ॥ ४० ॥ भगवान् के ऊपर इन्द्र तीन छत्र धारण करता है । वह तीन छत्र ऐसे जान पड़ते हैं, मानो गंगा नदी के गोलाकार किए हुए तीन स्रोत हों। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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