SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 362
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७२ योग-शास्त्र मार्तण्डमण्डलश्रीविडम्बि भामण्डलं विभोः परितः । आविर्भवत्यनुवपुः प्रकाशयत्सर्वतोऽपि दिशः ।। ३१ ॥ तीर्थङ्कर भगवान् के शरीर के पीछे सूर्यमण्डल की प्रभा को भी मात करने वाला और समस्त दिशाओं को पालोकित करने वाला भामण्डल प्रकट होता है। सञ्चारयन्ति विकचान्यनुपादन्यासमाशु कमलानि । भगवति विहरति तस्मिन् कल्याणिभक्तयो देवाः ।। ३२ ॥ अर्हन्त भगवान् जब पृथ्वीतल पर विहार करते हैं, तो कल्याणकारिणी भक्ति वाले देव तत्काल ही उनके प्रत्येक चरण रखने के स्थान पर विकसित स्वर्ण-कमलों का संचार करते हैं-स्वर्णमय कमल स्थापित करते हैं। अनुकूलो वाति मरुत् प्रदक्षिणं यान्त्यमुष्य शकुनाश्च । तरवोऽपि नमन्ति भवन्त्यधोमुखाः कण्टकाश्च तदा ॥ ३३ ।। भगवान् के विहार के समय वायु अनुकूल बहने लगती है, गीदड़, नकुल आदि के शकुन दाहिने हो जाते हैं, वृक्ष भी नम्र हो जाते हैं और काँटों के मुख नीचे की ओर हो जाते हैं। प्रारक्त-पल्लवोऽशोकपादपः स्मेर-कुसुमगन्धाढ्यः । प्रकृत-स्तुतिरिव मधुकर-विरुतविलसत्युपरि-तेन ॥ ३४॥ लालिमा युक्त पत्तों वाला तथा खिले हुए फूलों की सुगंध से व्याप्त अशोक तरु उनके ऊपर सुशोभित होता है और वह ऐसा प्रतीत होता है कि मानो भ्रमरों के नाद के बहाने भगवान् की स्तुति कर रहा है । षडपि समकालमृतवो भगवन्तं ते तदोपतिष्ठन्ते । स्मर-साहायककरणे प्रायश्चित्तं ग्रहीतुमिव ।। ३५ ॥ भगवान् के समीप एक साथ छहों ऋतुएँ प्रकट होती हैं, मानों घे कामदेव का सहायक बनने का प्रायश्चित करने के लिए भगवान् की चरण-सेवा में उपस्थित हुई हों। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy