SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ योग-शास्त्र सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्द-दायकः । __समीर इव निःसंगः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते ॥ ७ ॥ जो प्राणों के नाश होने का अवसर आ जाने पर भी संयम-निष्ठा का परित्याग नहीं करता है, अन्य प्राणियों को प्रात्मवत् देखता है, अपने ध्येय-लक्ष्य से च्युत नहीं होता है, जो सर्दी, गर्मी और वायु से खिन्न नहीं होता, जो अजर-अमर बनाने वाले योग रूपी अमृत-रसायन को पान करने का इच्छुक है, रागादि दोषों से आक्रान्त नहीं है, क्रोध आदि कषायों से दूषित नहीं है, मन को आत्माराम में रमण कराने वाला है, समस्त कर्मों में अलिप्त रहने वाला है, काम-भोगों से पूर्णतया विरक्त है, अपने शरीर पर भी ममत्व-भाव नहीं रखता है, संवेग के सरोवर में पूरी तरह मग्न रहने वाला है, शत्रु-मित्र, स्वर्ण-पाषाण, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान आदि में समभाव रखने वाला है, समान रूप से प्राणीमात्र के कल्याण की कामना करने वाला है, प्राणीमात्र पर करुणा-भाव रखने वाला है, सांसारिक सुखों से विमुख है, परीषह और उपसर्ग आने पर भी सुमेरु की तरह अचल-अटल रहता है, चन्द्रमा की भाँति आनन्ददायक और वायु के समान निःसंग–अप्रतिबन्ध विहारी है, वही प्रशस्त बुद्धि वाला प्रबुद्ध-साधक प्रशंसनीय और श्रेष्ठ ध्याता हो सकता है। ध्येय का स्वरूप पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् । चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥ ८ ॥ ज्ञानी पुरुषों ने ध्यान के आलम्बन रूप-ध्येय को चार प्रकार का माना है-१. पिण्डस्थ, २. पदस्थ, ३. रूपस्थ और ४. रूपातीत । पिण्डस्थ-ध्येय की धारणाएँ पार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारुती वारुणी तथा । तत्त्वभूः पञ्चमी चेति पिण्डस्थे पञ्च धारणाः ॥ ६॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy