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________________ पंचम प्रकाश २१७ जब यह अभ्यास दृढ़ हो जाए और वरुण वायु चल रहा हो, तो कपूर, अगर और कुष्ट आदि सुगंधित द्रव्यों में पवन को वेध करनाछोड़ना शुरू कर दे। __इन सब में वेध करने में जब सफलता प्राप्त हो जाए और साधक जब वायु के संयोजन में कुशल हो जाए, तब छोटे-छोटे पक्षियों के मृत शरीर में वेध करने का प्रयत्न करे। पतंग और भ्रमर आदि के मृत शरीर में वेध करने का अभ्यास करने के पश्चात् मृग आदि के विषय में भी अभ्यास प्रारम्भ करना चाहिए। तत्पश्चात् एकाग्रचित्त, धीर एवं जितेन्द्रिय होकर योगी को मनुष्य, घोड़ा, हाथी आदि के मृत शरीरों में पवन को वेध करना चाहिए। उनमें प्रवेश और निर्गम करते-करते अनुक्रम से पाषाण की पुतली, देवप्रतिमा प्रादि में प्रवेश करना चाहिए । एवं परासुदेहेषु प्रविशेद्वाम-नासया । जीवद्देहप्रवेशस्तु नोच्यते पाप-शङ्कया ॥ २७२ ।। इस प्रकार मृत जीवों के शरीर में बायीं नासिका से प्रवेश करना चाहिए। पाप की शंका से जीवित देह में प्रवेश करने का कथन नहीं किया गया है। १. योग-साधना की प्रक्रिया से साधक किसी जीवित व्यक्ति के शरीर में भी प्रवेश कर सकता है। परन्तु, दूसरे के प्राणों का नाश किए बिना उसके शरीर में प्रवेश नहीं किया जा सकता है, अतः परकीय जीवित शरीर में प्रवेश करने का उपदेश वस्तुतः हिंसा का उपदेश है। तथापि ग्रंथ को अपूर्ण न रखने के अभिप्राय से प्राचार्य ने प्रस्तुत ग्रन्थ की टीका में उसका दिग्दर्शन मात्र कराया है। ब्रह्मरन्ध्रेण निर्गत्य प्रविश्यापानवर्त्मना । श्रित्वा नाभ्यम्बुजं यायात् हृदम्भोजं सुषुम्णया ॥ १ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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